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________________ सूत्र १-२-३ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४३९ कर्मप्रकृतियोंके संवरके कारण ऊपर बताये जा चुके हैं । उन कारणोंके मिलनेपर संवरकी सिद्धि होती है - बंधके कारणों का अभाव होता है । इसी लिये उस महात्मा के नवीन कमका आगमन - संचय नहीं होता । इसके साथ ही निर्जराके कारणका निमित्त पाकर पूर्वसंचित कर्मोंका एकदेश क्षय भी होने लगता है । इस प्रकार नवीन कर्मोंका संवर और संचित कर्मोकी निर्जरा होनेपर केवलज्ञान प्रकट होता है । अर्थात् केवलोत्पत्ति में दो कारण हैं - बंधके कारणोंका संवर और निर्जरा । इनके होनेसे ही शुद्ध बुद्ध सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवली जिनभगवानू की अवस्था प्रसिद्ध होती है । भाष्यम् - ततोऽस्य ।- अर्थ-संवर और निर्जराके द्वारा क्रमसे कर्मोंका एकदेश क्षय होते होते उस केवली भगवान् के जो चार कर्म शेष रह जाते हैं, उनका भी क्या होता है, और सबसे अंत में किसं• अवस्थाकी सिद्धि होती है, इस बात को बतानेके लिये सूत्र कहते हैं । - सूत्र - कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥ ३ ॥ भाष्यम् - कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवति । पूर्वं क्षीणानि चत्वारि कर्माणि पश्चाद्रेदनीयनामगोत्रायुष्कक्षयो भवति । तत्क्षयसमकालमेवौदारिकशरीरवियुक्तस्यास्य जन्मनः प्राणम् । हेत्वभावाच्चोत्तरस्या प्रादुर्भावः । एषावस्था कृत्स्नकर्मक्षयों मोक्ष इत्युच्यते ॥ किं चान्यत् अर्थ- सम्पूर्ण कर्मोंके क्षय हो जानेको मोक्ष कहते हैं । आठ कर्मो से चार कर्म पहले ही क्षीण हो जाते हैं । उसके बाद अरिहंत अवस्था प्राप्त हो जानेपर चार कर्म जो शेष रह जाते हैं - वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्क इनका भी क्षय होता है । जिस समय इन चार अघातिकमोंका भी पूर्णतया क्षय हो जाता है, उसी समय में केवली भगवान्‌का औदारिक शरीरसे भी वियोग हो जाता है, जिससे कि अंतमें इस जन्मका ही अभाव हो जाता है । पुनः कारणका अभाव होनेसे- किसी भी कारणके न रहनेसे उत्तर जन्मका प्रादुर्भाव नहीं होता । यह अवस्था कर्मोंके सर्वथा क्षयरूप है, इसीको मोक्ष कहते हैं । भावार्थ - आठ कर्मो से ४ घाति और ४ अघाति हैं । घातिचतुष्टय के नष्ट होनेपर पूर्वोक्त रीतिसे सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त होती है । सर्वज्ञ केवली भगवान्के जो ४ अघातिकर्म शेष रह जाते हैं, उनका भी जब सम्पूर्ण क्षय हो जाता है, तभी मोक्षकी प्रसिद्धि कही जाती है । क्योंकि सम्पूर्ण कर्मोके क्षयको ही मोक्ष कहते हैं । यही सातवें तत्त्वका स्वरूप है । सम्पूर्ण कर्मोके मष्ट हो जाने से वर्तमान शरीरकी स्थिति के लिये कोई कारण शेष नहीं रहता, और न नवीन शरीर के लिये ही कोई कारण बाकी रहता है । अतएव वर्तमान शरीर विघटित हो जाता है, और नवीन शरीरका धारण नहीं हुआ करता । इस प्रकार मोक्षके होनेपर जन्म-मरण रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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