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________________ . सूत्र ४९ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम् - लेश्याः - पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वाः षडपि । कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेस्तिस्र उत्तराः सूक्ष्मसंपरास्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला भवति । अयोगः शैलेशी प्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति । उपपातः - पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोर्द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिष्वारणाच्युतकल्पयोः । कषायकुशील निर्ग्रन्थयो स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिषुदेवेषु सर्वार्थसिद्धे । सर्वेषामपि जघन्या पल्योपमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे । स्नातकस्य निर्वाणमति ॥ ४३५ अर्थ — लेश्याका अर्थ पहले बाताया जा चुका है, कि कषायोदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । इसके छह भेद हैं-कृष्ण नील कापोत पीत पद्म शुक्ल । इनमें से पुलाक निर्ग्रन्थ के अन्तकी तीन लेश्याएं हुआ करती हैं । बकुश और प्रतिसे - वनाकुशीलके सब - छहीं लेश्याएं होती हैं । परिहारविशुद्धिसंयमको धारण करनेवाले कषायकुशील के अंतकी तीन लेश्याएं हुआ करती हैं । सूक्ष्मसंपरायसंयमको धारण करनेवाले निर्ग्रन्थ और स्नातक केवल एक शुक्ललेश्या ही हुआ करती है । किन्तु ऊपर लिखे अनुसार जो शैलेशिताको प्राप्त हो चुके हैं, ऐसे अयोगकेवली भगवान्के कोई भी लेश्या नहीं हुआ करती । वे अलेश्य माने गये हैं । उपपात~~-यह उपपात शब्द नारक या देवपर्यायमें जन्म धारण करने को बताता है, किन्तु प्रकृतमें देवगतिमें जन्मधारण करनेका ही इससे अर्थ ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि निर्ग्रन्थोंका नरकगतिमें जन्मधारण करना असंगत है । अतएव इस शब्दके द्वारा यहाँपर यही बताया है, कि इन पाँच प्रकारके निर्ग्रन्थोंमेंसे कौन कौनसा निर्ग्रन्थ आयुपूर्ण होनेपर कहाँ कहाँ जन्म - धारण किया करता है, या कहाँपर पहुँचता है । सो इस प्रकार है कि - पुलाक जातिके निर्ग्रन्थ सहस्रारस्वर्ग में उत्कृष्ट स्थितिवाले देवोंमें जाकर उत्पन्न होते हैं । बकुश और प्रतिसेवनाकुशील आरण और अच्युतकल्प में बाईस सागरकी स्थितिवाले देवों में जाकर उत्पन्न हुआ करते हैं । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ सर्वार्थसिद्ध के तेतीस सागरकी स्थितिवाले देवोंमें जाकर उत्पन्न हुआ करते हैं । तथा इन सभी निर्ग्रन्थोंका - स्नातकको छोड़कर बाकी चारों ही निर्ग्रन्थोंका जघन्य अपेक्षासे उपपात पृथक्त्व पल्यप्रमाण स्थितिवाले सौधर्मकल्पवासी देवों में हुआ करते हैं । स्नातकनिर्ग्रन्थ उपपात रहित हैं, क्योंकि वे जन्म - धारण नहीं किया करते, वे जन्म मरणसे रहित निर्वाणपदको ही प्राप्त हुआ करते हैं । भाष्यम्--स्थानम्--असंख्येयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः । तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः । ततः पुलाको व्युच्छिद्यते कषायकुशीलस्त्वसंख्येयानिस्थानान्येकाकी गच्छति । ततः कषायकुशीलप्रति सेवनाकुशीलवकुशा युगपदसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति । ततो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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