SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः बकुश दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक उपकरणबकुश और दुसरे शरीरबकश । इनमेंसे उपकरणबकुश उस भिक्षुकको-साधुको कहते हैं, जो कि उपकरणोंमें आशक्ति रखनेवाला हैजिसका चित्त अच्छे अच्छे वस्त्र पात्र आदि उपर्युक्त उपकरणोंके ग्रहण करनेकी तरफ लगा रहता है, नानाप्रकारके और विचित्र विचित्र महान् मुल्यवान् उपकरणोंकी परिग्रहसे युक्त रहता है, अत्यधिक उपकरणों की कांक्षा रखनेवाला है, तथा जो नित्य ही उन उपकरणोंके संस्कारका सेवन करता है-गृहीत उपकरणोंको जो सदा परिमार्जित आदि करता रहता है । जो शरीरमें आसक्तचित्त रहा करता है, और उसको शरीरको विभूषित करनेके लिये दत्तचित्त रहता है, तथा इसीके लिये जो अनेक उपायसे संस्कारोंका सेवन किया करता है, एवं शरीरको सुन्दर सुडौल दर्शनीय रखनेकी इच्छा रखता, और इसके उपायोंका भी सेवन करता है, उस भिक्षुकको शरीरबकुशनिम्रन्थ कहते हैं। कुशील मुनियोंके दो भेद बताये हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। इनमेंसे जो प्रतिसेवनाकुशील होते हैं, वह अपने मलगणोंमेंसे किसीकी भी विराधना नहीं करते-सबको परिपर्णःअखण्डित रखते है, किंतु उत्तरगुणों से किसी किसीकी विराधना कर दिया करते हैं। इस प्रकार पाँच तरहके निर्ग्रन्थोंमेंसे जिनके प्रतिसेवना पाई जाती है, उनका उल्लेख किया, शेष निम्रन्थों को प्रतिसेवना रहित समझना चाहिये । अतएव कहते हैं, कि कषायकुशीलनिग्रन्थ और स्नातक इन तीनोंके प्रतिसेवना नहीं हुआ करती । ___भाष्यम्--तीर्थम्--सर्वे सर्वेषां तीर्थकरणां तीर्थेषु भवन्ति । एकत्वाचार्या मन्यन्ते पुलाक बकुश प्रतिसेवनाशीलास्तीर्थे नित्यं भवन्ति शेषास्तीर्थे वाऽतीर्थे वा।। लिङ्गम्--लिङ्ग द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं च । भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे पञ्च निर्ग्रन्था भावलिङ्गे भवन्ति द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः॥ ___ अर्थ----तीर्थ-उपर्युक्त पाँचों ही प्रकारके निम्रन्थ सम्पूर्ण तीर्थकरोंके तीर्थमें हुआ करते हैं। किन्तु किसी किसी आचार्यका ऐसा अभिमत या कहना है, कि पाँच प्रकारके निम्रन्थोंमेंसे पुलाक बकुश और प्रतिसेवनाकुशील सदा तीर्थमें ही हुआ करते हैं, और बाकीके निर्ग्रन्थ कषायकुशीलनिम्रन्थ और स्नातक तीर्थमें भी होते हैं और अतीर्थमें भी होते हैं। लिङ्ग-लिङ्ग दो प्रकारका होता है । एक द्रव्यलिङ्ग दूसरा भावलिङ्ग । भावलिङ्गकी अपेक्षासे सब-पाँचोही निर्ग्रन्थ भावलिङ्गमें रहा करते हैं। द्रव्यलिङ्गकी अपेक्षासे यथायोग्य विभाग कर लेना चाहिये । अर्थात् किसीके द्रव्यलिङ्ग होता है, किसीके नहीं होता । कोई द्रव्यलिङ्गमें रहता है, कोई नहीं रहता। १-दिगम्बर-सम्प्रदायमें वस्त्र पात्र रखना निषिद्ध है। ____२-छठे गुणस्थान और उससे ऊपरके परिणामोंको भाषलिंग और तदनुसार बाह्य वेशको द्रव्यलिंग कहते हैं। यदि द्रव्यलिंग अनियत और भावलिंग नियत है, तो बकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके छहों लेश्या किस तरह घटित होती है, सो समझमें नहीं आता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy