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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम
[ प्रथमोऽध्यायः
विशुद्धि देशना प्रायोग्य और करण । कर्मोकी स्थिति घटकर जब अंतःकोटीकोटी प्रमाण रह जाती है, तभी जीव सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करने के योग्य बनता है । इसी प्रकार जब उसके. परिणाम एक विशिष्ट जातिकी भद्रता और निर्मलताको धारण करते हैं, तभी उसमें सम्यक्त्वको उत्पन्न करने की योग्यता आती है, और इसी तरह सद्गुरुका उपदेश मिलने से वास्तविक जीव अजीव और संसार मोक्षका - सप्त तत्त्व नव पदार्थ षड्द्रव्यका स्वरूप मालूम होनेपर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेकी योग्यता जीवमें आती है । तथा संज्ञी पर्याप्त जागृत अवस्था साकारोपयोग आदि योग्यताके मिलनेको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं, इसके भी होनेपर ही सम्यग्दर्शन प्रकट हो सकता है । करण नाम आत्मा के परिणामोंका है । वे तीन प्रकार के हैं - अधःकरण अपर्वकरण “अनिवृत्तिकरणै ।
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इन पाँच लब्धियोंमें से चार लब्धि सामान्य हैं और करणलब्धि विशेष है । अर्थात् करणलब्धि हुए विना चार लब्धियोंके हो जानेपर भी सम्यक्त्व नहीं होता । अनादिकाल से जीवको संसार में भ्रमण करते हुए अनेक वार चार लब्धियों का संयोग मिला, परन्तु करणलब्धिके न मिलनेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ । फिर भी सम्यग्दर्शनके होनेमें उन चार लब्धियोंका होना भी आवश्यक है ।
देशनालको ही उपदेश या अधिगम आदि शब्दोंसे कहते हैं । इसके निमित्तसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसको अधिगमन और जो इसके बिना ही हो, उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
कर्मके अधीन हुआ यह जीव जब उसके निमित्तसे नवीन कर्मको ग्रहण कर लेता है तत्र उसको उस कर्मके बंधै निकाच उदये निर्देशकी अपेक्षा से चतुर्गतिमें भ्रमण और उनमें रहकर उन कर्मो का शुभाशुभ फल भोगना पड़ता है। उन उन कर्मजनित परिणामस्थानों को प्राप्त करता हुआ यह जीव अनादि मिध्यादृष्टि होकर भी कभी अपने उपयोग स्वभाव के कारण परिणाम विशेष के द्वारा देशनालब्धि - परोपदेशके विना ही करणलब्धि के भेदस्वरूप अपूर्वकरण जाति के परिणामोंको प्राप्त कर लेता है, और उससे उसके सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है ।
१ - उपयोग के दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन । इनमेंसे ज्ञान साकारोपयोग है, और दर्शन निराकारोपयोग । सम्यक्त्व साकारोपयोग - ज्ञानकी अवस्थामें ही होता है, निराकार दर्शनोपयोगकी अवस्थामें नहीं होता । २-इनका विस्तृत स्वरूप गोम्मटसार जीवकाण्ड अथवा सुशीला उपन्यास में देखना चाहिये । ३ - पुद्गलकमका आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह होनेको बंध कहते हैं - " आत्मकर्मणोरन्योऽन्य प्रदेशानुप्रवेशात्मको बंधः । सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद - अथवा " अनेकपदार्थानामेकत्व वृद्धिजनक सम्बन्धविशेषो बंधः । " ४ -- जिसका फल अवश्य भोगना ही पड़ता है, उसको निकानबंध कहते हैं । ५- द्रव्यक्षेत्र आदिके निमित्तसे कर्मों के फल देनेको उदय कहते हैं । ६-फल देकर आत्मासे कम का जो सम्बन्ध छूट जाता है, उसको निर्जरा कहते हैं । - जो आत्माके करण - परिणाम पूर्वमें कभी भी नहीं हुए उनको अपूर्वकरण कहते हैं ।
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