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________________ सूत्र ३ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नर्थान्तरम् । ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव इति वक्ष्यते । तस्यानादौ संसारे परिभ्रमतः कर्मत एव कर्मणः स्वकृतस्य बन्धनिकाचनोदयनिर्जरापेक्षं नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु विविधं पुण्यपापफलमनुभवतो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वाभाव्यात् तानि तानि परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छतोऽनादिमिथ्यादृष्टरपि सतः परिणामविशेषादपू करणं तादृग्भवति येनास्यानुपदेशात्सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्येतन्निसंगसम्यग्दर्शनम् । अधिगमः अभिगमः आगमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् । तदेवं परोपदेशाद्यत्तत्वार्थश्रद्धानं भवति तदधिगमसम्यग्दर्शनमिति ॥ __ अर्थ-जिसका कि ऊपर लक्षण बताया गया है, वह सभ्यग्दर्शन दो प्रकारका हैएक निसर्गसम्यग्दर्शन दूसरा अधिगमसम्यग्दर्शन । केई सम्यग्दर्शन निसर्गसे उत्पन्न होता है, और कोई अधिगमसे उत्पन्न होता है, अतएव यहाँपर ये दो भेद उत्पत्तिके दो कारणोंकी अपेक्षासे हैं, न कि स्वरूपकी अपेक्षासे । जो सम्यग्दर्शन निसर्गसे होता है, उसको निसर्गज और जो अधिगमसे होता है, उसको अधिगमन कहते हैं । निसर्ग स्वभाव परिणाम और अपरोपदेश इन सब शब्दोंका एक ही अर्थ है । ये सत्र शब्द पर्यायवाचक हैं। अतएव परोपदेशके विना स्वभावसे ही परिणाम विशेषके हो जानेपर जो सम्यग्दर्शन होता है, उसको निसर्गज, और जो परोपदेशके निमित्तसे परिणाम विशेषके होनेपर प्रकट होता है, उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । जीवका लक्षण ज्ञानदर्शनरूप उपयोग है, ऐसा आगे चलकर बतायेंगे । यह जीव अनादिकालसे संसारमें परिभ्रमण कर रहा है । कर्मके निमित्तसे यह जीव स्वयं ही 'जिन नवीन कर्मोंको ग्रहण करता है, उनके बंध निकाचन उदय निजरा आदिकी अपेक्षासे यह जीव नारक तिर्यग् मनुष्य और देव इन चार गतियोंको योग्यतानुसार ग्रहण करता है, और उनमें नाना प्रकारके पुण्य पापके फलको भोगता है । अपने ज्ञानदर्शनोपयोगरूप स्वभावके कारण यह जीव विलक्षण तरहके उन उन परिणामाध्यवसाय स्थानोंको प्राप्त होता है, कि जिनको प्राप्त होनेपर अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके भी उन परिणाम विशेषके द्वारा ऐसे अपर्वकरण हो जाते हैं, कि जिनके निमित्तसे विना उपदेशके ही उस जीवके सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है । इस तरहके सम्यग्दर्शनको ही निसर्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं। ___ अधिगम अभिगम आर्गम निमित्त श्रवण शिक्षा उपदेश ये सत्र शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । इसलिये जो परोपदेशके निमित्तले उत्पन्न होता है, उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेमें पंच लैब्धियोंको कारण माना है; क्षयोपशम १--आप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः-"न्यायदीपिका " । २--शब्द । ३--लब्धि नाम प्राप्तिका है। परन्तु यहाँपर जिनके होनेपर ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है, ऐसी योग्यताओंकी प्राप्तिको ही लब्धि समझना चाहिये । इसके पाँच भेद हैं, यथा-" खयउवसमियविसोही देसणपाउग्ग करणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते । ६५०॥" ( गोम्मटसार-जीवकाण्ड ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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