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________________ १८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः 1 अतएव तत्त्व और अर्थमें भी कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है । इसी लिये यहाँपर " तत्त्वार्थ श्रद्धानम् ?” इस पदकी निरुक्ति दो प्रकारसे की है। यहाँ पर यह शंका हो सकती है, कि जब तत्त्व और अर्थ में अभेद है, तब दोनों शब्दों के प्रयोगकी सूत्रमें क्या आवश्यकता है? या तो " तत्त्वश्रद्धानं " इतना ही कहना चाहिये, अथवा “अर्थश्रद्धानम् " ऐसा ही कहना चाहिये । परन्तु यह शंका ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा होनेसे दोनों ही पक्षमें एकान्तरूप मिथ्या अर्थका ग्रहण हो सकता है । " तत्त्वश्रद्धानं " इतना ही कहने से केवल सत्ता या केवल एकत्व अथवा केवल भावके ही श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है । इसी प्रकार अर्थश्रद्धानं इतना ही माननेपर तत्त्वके भी श्रद्धानका अर्थ छूटे जाता है । अतएव दोनों पदोंका ग्रहण करना ही उचित है । तस्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन आत्माका एक ऐसा सूक्ष्म गुण है, कि जिसको हरएक जीव प्रत्यक्ष नहीं देख सकते । अतएव जो सम्यग्दर्शन के होनेपर ही आत्मामें प्रकट हो सकते हैं, उन प्रशम संवेग आदि पाँच भावरूप चिन्हों को देखकर सम्यग्दर्शन के अस्तित्वका अनुमान किया जा सकता है । उन पाँच भावोंका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार है प्रशम - राग द्वेष अथवा क्रोधादि कषायका उद्रेक न होना । या उन कषायोंको जागृत न होने देना और जीतनेका प्रयत्न करना । संवेग - जन्म मरण आदिके अनेक दुःखोंसे व्याप्त संसारको देखकर भयभीत होना । संसार के कारणभूत कर्मोंका मेरे संग्रह न हो जाय, ऐसी निरंतर चित्तमें भावना रखना । निर्वेद - संसार शरीर और भोग इन तीन विषयोंसे उपरति अथवा इनके त्यागकी भावना होना । ---- अनुकम्प – संसार के सभी प्राणियोंपर दयाका होना अथवा सभी संसारी जीवोंको अभय नाका भाव होना | आस्तिक्य – जीवादिक पदार्थोंका जो स्वरूप अरहतदेव ने बताया है, वही ठीक है, अथवा उन पदार्थोंको अपने अपने स्वरूपके अनुसार मानना । इस प्रकार सम्यग्दर्शनका लक्षण बताया, अब उसकी उत्पत्ति किस तरहसे होती है, इस बात को बतानेके लिये उसके दो हेतुओं का उल्लेख करनेको सूत्र कहते हैं: सूत्र - तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ भाष्यम् - तदेतत्सम्यग्दर्शनं द्विविधं भवति-- निसर्गसम्यग्दर्शनमधिगमसम्यग्दर्शनं च । निसर्गादधिगमात्पद्यत इति द्विहेतुकं द्विविधम् । निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोपदेश इत्य १ - - सत्ता ही तत्त्व है, ऐसा किसी किसी का मत है, कोई एकस्वको ही तत्त्व मानते हैं, कोई अर्थ छोड़कर केवल भावका ही ग्रहण मानते हैं, इत्यादि । २ -- नैयायिकोंने भावको छोड़कर केवल अर्थका ही ग्रहण- ज्ञान होना माना है । ३ – रागादीनामनुदेकः प्रशमः । ४ - - संसाराद्भीरुता संवेगः । ५-- संसारशरीरभोगेषूपरतिः । ६ - सर्वभूतदया । ७--- जीवादयोऽर्थाः यथास्वं सन्तीतिमतिरास्तिक्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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