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________________ सूत्र २ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १७ सम्बन्ध करना चाहिये । क्योंकि " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि " इस पदमें द्वन्द्वसमास किया गया है, और व्याकरणका यह नियम है, कि द्वन्द्वसमासमें आदिके अथवा अंतके शब्दका उसके प्रत्येक शब्दके साथ सम्बन्ध हुआ करती है । अतएव इसका ऐसा अर्थ होता है, कि सम्य . ग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी पूर्ण मिली हुई अवस्था मोक्षका मार्ग- उपाय है। सम्यक् शब्दके लगानेसे मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति बताई है इसी लिये यहाँपर सम्यग्दर्शनका स्वरूप बताते हुए प्राप्तिका विशेषण अव्यभिचारिणी ऐसा दिया है । अन्यथा अतत्त्व श्रद्धान, और संशय विपर्यय अनध्यवसायरूप ज्ञान, तथा विपरीत चारित्रको भी कोई मोक्षमार्ग समझ सकता था । मोक्षके मार्गस्वरूप रत्नत्रयमें से क्रमानुसार पहले सम्यग्दर्शनका लक्षण बतानेके लिये आचार्य सूत्र कहते हैं: सूत्र - तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ भाष्यम् -- तत्त्वानामर्थानां श्रद्धानं तत्त्वेन वार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम् तत् सम्य--- ग्दर्शनम् । तत्त्वेन भावतो निश्चितमित्यर्थः । तत्त्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एव चार्थास्तेषां श्रद्धानं तेषु प्रत्ययावधारणम् । तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वा श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ अर्थ- - तत्त्वरूप अर्थोके श्रद्धानको, अथवा तत्त्वरूपसे अर्थोके श्रद्धान करनेको तत्त्वार्थश्रद्धान कहते हैं, और इसीका नाम सम्यग्दर्शन है । तत्त्वरूपसे श्रद्धान करनेका अभिप्राय यह है, कि भावरूपसे निश्चय करना । तत्व जीव अजीव आदिक सात हैं, जैसा कि आगे.... चल कर उनका वर्णन करेंगे । इन तत्त्वों को ही अर्थ समझना चाहिये, और उनके श्रद्धानको अथवा उनमें विश्वास करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार तत्त्वार्थों के.. श्रद्धानरूप जो सम्यग्दर्शन होता है, उसका लक्षण - चिन्ह इन पाँच भावोंकी अभिव्यक्तिप्रकटता है- प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । भावार्थ - तत् शब्द सर्वनाम है, और सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थके वाचक हुआ करते हैं । तत् शब्द भाव अर्थमें त्व प्रत्यय होकर तत्त्व शब्द बना है । अतएव हरएक पदार्थ स्वरूपको तत्त्व शब्दसे कह सकते हैं । जो निश्चय किया जाय --- - निश्चयका विषय हो उसको अर्थ कहते हैं । अनेकान्त सिद्धान्तमें भाव और भाववान् में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद माना है । " "" १ – “ चकार बहुलो द्वन्द्वः । २ - द्वन्द्वादौ द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येकं परिसमाप्यते । ३ -- इसी अध्यायका सूत्र ४ । ४ - अर्थते - निश्चयते इति अर्थः । ५- जैनमतमें, क्योंकि जैनमत वस्तुको अनंतधर्मात्मकमानता है । अनेकान्त शब्दका अर्थ भी ऐसा ही माना है, कि अनेके अन्ताः = धर्माः यस्मिन् असौ अनेकान्तः । ६ -- किसी अपेक्षा विशेषसे । ३ Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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