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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
किसी प्रकारका भी व्यभिचार नहीं पाया जाता ऐसी इन्द्रिय और मनके विषयभूत समस्त पदार्थोंकी दृष्टि-श्रद्धारूप प्राप्तिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । प्रशस्त-उत्तम-संशय विपर्यय अनध्यवसाय आदि दोषोंसे रहित दर्शनको अथवा संगत-युक्तिसिद्ध दर्शनको सम्यग्दर्शन कहते हैं। दर्शन शब्दकी तरह ज्ञान और चारित्र शब्दके साथ भी सम्यक् शब्दको जोड़ लेना चाहिये ।
भावार्थ-सत्रमें “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि" यह विशेषणरूप वाक्य है, और " मोक्षमार्गः " यह विशेष्यरूप वाक्य है। व्याकरणके नियमानुसार जो वचन विशेष्यका हो वही विशेषणका होना चाहिये, किन्तु यहाँपर वैसा नहीं है; यहाँ तो विशेषण-वाक्य बहुवचनान्त है, और विशेष्य-वाक्य एकवचनान्त है। फिर भी यह वाक्य अयुक्त नहीं है, क्योंकि अर्थ विशेषको सूचित करनेके लिये ऐसा भी वाक्य बोला जा सकता है । अतएव इस प्रकारका वाक्य बोलकर आचार्यने इस विशेष अर्थको सचित किया है, कि ये समस्त-तीनों मिलकर ही मोक्षके मार्ग-उपाय-साधन हो सकते हैं, अन्यथा-एक या दो-नहीं ।
यद्यपि इन तीनों गुणामसे सम्यग्दर्शनके साथ शेषके दो गण भी किसी न किसी रूपमें प्रकट हो ही जाते हैं, फिर भी यहाँपर पूर्वके होनेपर भी उत्तरको भजनीय जो कहा है सो शब्दनयकी अपेक्षासे समझना चाहिये । क्योंकि शब्दनयकी अपेक्षासे यहाँ सम्यग्दर्शन आदि शब्दोंसे क्षायिक और पूर्ण सम्यग्दर्शन आदि ही ग्रहण करने चाहिये । सो क्षायिकसम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र क्रमसे ही प्रकट होते हैं । क्षायिकसम्यग्दर्शन चौथेसे लेकर सातवें तक किसी भी गुणस्थानमें हो सकता है । क्षायिकसम्यग्ज्ञान तेरहवें गुणस्थानमें ही होता है । क्षायिकसम्यक्चारित्र चौदहवें गुणस्थानके अंतमें ही होता है । अतएव इन क्षायिक गणोंकी निष्ठापनाकी अपेक्षा पूर्व गुणके होनेपर उत्तरगुणको भजनीय समझना चाहिये । और उत्तर गुणके प्रकट होनेपर पूर्व गुणका प्रकट होना नियमसे समझना चाहिये ।
___ यहाँपर दर्शन ज्ञान और चारित्र इन तीनों शब्दोंको कर्तसाधन कणेसाधन और भावसाधने इस तरह तीनों प्रकारका समझना चाहिये, और इनमें से प्रत्येकके साथ सम्यक् शब्दका
१-जो प्रतिपक्षी कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर आत्माका गुण प्रकट होता है, उसको क्षायिक कहते हैं । जैसे कि सम्यग्दर्शन गुणके घातनेवाले कर्म सात हैं-मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृति और चार अनंतानुबंधी कषाय । सो इनका सर्वथा अभाव होनेपर जो प्रकट होगा, उसको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहेंगे । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मका सर्वथा अभाव होनेपर क्षायिकज्ञान होता है, और चारित्रको विपरीत अथवा अपूर्ण रखनेवाले कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर क्षायिकचारित्र होता है। २-- सम्यक्त्व चारित्र और योग इनकी अपेक्षासे आत्माके गुणों के जो स्थान हो, उनको गुणस्थान कहते हैं-इनके चौदह भेद हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली, अयोगकेवली । ३--प्रारब्धकार्यकी समाप्ति । ४-जैसे पश्यति इति दर्शनम्, जानाति इति ज्ञानम्, चरति इति चारित्रम् । ५----दृश्यते अनेन इति दर्शनम् , ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् , चर्यते अनेन इति चारित्रम् , । ६---दृष्टिदर्शनम् , ज्ञातिमा॑नम् , चरणं चारित्रम् ।
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