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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः अन्तर है । क्योंकि कायोत्सर्गादि करनेको व्युत्सर्गप्रायश्चित्त कहते हैं, और परिग्रहके त्यागको व्युत्सर्गतप कहते हैं । इसके सिवाय एक यह भी कारण है, कि प्रायश्चित्त अपराधकी निवृत्तिके लिये किया जाता है, और गुरुका दिया हुआ होता है, तथा शुद्धताके अभिलाषियोंको उसका अवश्य ही पालन करना पड़ता है । किंतु तप शक्ति और इच्छा के 1 अनुसार हुआ करता है । उसका करना स्वाधीन है । ४२२ इस प्रकार आभ्यन्तरतपके छह भेदोंमेंसे आदिके पाँच भेदोंका वर्णन किया, अब अन्तिम मेद - ध्यानका वर्णन करनेके लिये उसके निर्देश स्वामित्वको दिखाने के लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - उत्तम संहनन स्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ भाष्यम् -- उत्तमसंहननं वज्रर्षभमर्धवज्रनाराचं च । तद्युक्तस्यैकाग्रचिन्तानिरोधश्च ध्यानम् ॥ अर्थ — वज्रर्षभसंहनन और अर्धवज्रसंहनन तथा नाराचसंहनन इनको उत्तम संहनन कहते हैं । इन संहननोंसे युक्त जीवके एकाग्ररूपसे चिन्ताका जो निरोष होता है, उसको ध्यान कहते हैं । भावार्थ- -अग्र शब्दका अर्थ मुख है, और चिन्ता शब्दका अर्थ है, चिन्तन -- विचार अर्थात् मनकी गति जो क्षण क्षणमें विषयसे विषयान्तरकी तरफ दौड़ती रहती है, उसको सब तरफ से रोककर किसी भी एक विवक्षित विषयकी तरफ जोड़े रहने को अथवा सब तरफसे हटकर एक विषयकी तरफ विचारके लगनेको ध्यान कहते हैं । यह ध्यानका सामान्य लक्षण है । किंतु तपमें उसी ध्यानका ग्रहण करना चाहिये, जो कि साक्षात् अथवा परम्परया मोक्षका कारण हो - कर्मोंका संवर और निर्जरा होकर जिससे सर्वथा कर्मों का क्षय हो जाय । जो संसारका कारण है, उस ध्यानको तपमें नहीं लिया जा सकता. । ध्यानके कालका उत्कृष्ट प्रमाण बताते हैं - सूत्र - आमुहूर्तात् ॥ २८ ॥ भाष्यम् – तद्ध्यानमा मुहूर्ताद्भवति परतो न भवति दुर्ध्यानत्वात् ॥ अर्थ – ऊपरके सूत्रमें जिसका लक्षण बताया जा चुका है, वह ध्यान ज्यादः से ज्यादः एक मुहूर्त तक हो सकता है, इससे अधिक कालतक नहीं हो सकता क्योंकि अधिक काल हो जानेपर दुर्ध्यान हो जाता है । १ - - इस सूत्र में 'उत्तम संहननस्य' ऐसा क्यों कहा, सो समझमें नहीं आता। क्योंकि सामान्य ध्यान तो अनुत्तम - संहननवाले भी होता है । दिगम्बर-सम्प्रदायमें २७ और २८ की जगह एक ही सूत्र है, जिससे ऐसा अर्थ होता है, कि यह ध्यान उत्तम संहननवालेके अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है । इस पृथक् योगके रहनेसे अनुत्तम संहननवालेके ध्यानको ध्यान नहीं कह सकते । श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में ऐसा ही माना भी है, किन्तु यह जँचता नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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