________________
सूत्र २५-२६ ।) समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । . अर्थ—स्वाध्याय नामक तपके पाँच भेद हैं, जो कि इस प्रकार हैं। -वाचना, प्रच्छन, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ।
शिष्योंको पढ़ानेका नाम वाचनो स्वाध्याय है । ग्रन्थके अर्थका अथवा शब्दपाठका पूछना इसको प्रच्छना कहते हैं। ग्रन्थपाठ और उसके अर्थका मनके द्वारा अभ्यास करना इसको अनुप्रेक्षा कहते हैं । आम्नाय घोषविशुद्ध परिवर्तन गुणन और रूपदान ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । शुद्धतापूर्वक पाठके घोखनेको-कंठस्थ करनेको या पुनः पुनः पाठ करनेको-पारायण करनेको आनाय कहते हैं । अर्थोपदेश व्याख्यान अनुयोगवर्णन और धर्मोपदेश ये सब शब्द पर्यायवाचक हैं । अर्थात् तत्त्वार्थादिके निरूपण करनेको धर्मोपदेश कहते हैं।
भावार्थ-प्रज्ञाका अतिशय अथवा प्रशस्त अध्यवसायको सिद्ध करनेके लिये स्वाध्याय किया जाता है । जिससे आत्म-तत्त्वकी तरफ प्रवृत्ति हो, इस तरहकी कोई भी अध्ययनाध्यापन या उनके साधनोंके दान प्रदान आदि क्रिया प्रवृत्ति करना, इसको स्वाध्यायतप कहते हैं । जो संयमका साधक या उससे अविरुद्ध हो, और जिससे कर्मोंकी निर्जरा होती हो, वही स्वाध्यायतप माना जा सकता है। जो राग कथारूप या संसारवर्धक अथवा सावद्य क्रियाका समर्थक है, उसको तप नहीं कह सकते।
क्रमानुसार व्युत्सर्गतपके भेदोंको गिनाते हैं
सूत्र-बाह्याभ्यन्तरोपध्योः॥ २६ ॥ भाष्यम्-व्युत्सर्गो द्विविधः, बाह्य आभ्यन्तरश्च । तत्र बाटो द्वादशरूपकस्योपधेः आभ्यन्तरः शरी कषायाणां चेति ॥
अर्थ-पाँचवें आभ्यन्तरतपका नाम न्युत्सर्ग है । उसके दो भेद हैं-एक बाह्य दूसरा आभ्यन्तर । बौरह प्रकारके जो बाह्य परिग्रह आगममें बताये हैं, उनके त्याग करनेवो बाह्य व्युत्सर्ग कहते हैं, और शरीर तथा कषायोंसे सम्बन्ध छोड़नेको-ममत्वपरिहारको आभ्यन्तर व्युत्सर्ग कहते हैं।
भावार्थ-व्युत्सर्ग नाम छोड़नेका अथवा त्यागका है । प्रकृतमें उपधिके त्यागको व्युत्सर्ग कहते हैं । प्रायश्चित्तके भेदोंमें भी व्युत्सर्गका उल्लेख किया गया है । किन्तु दोनोंके स्वरूपमें
९-दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार इनका लक्षण इस प्रकार है-निरवद्य ग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना, संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः प्रच्छना, अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा, शुद्धघोषणमाम्नायः, धर्मकथाद्यनुष्ठान धर्मोपदेशः । २-क्षेत्र वास्तु हिरण्य सुवर्ण धन धान्य द्विपद चतुष्पद कुप्य और भांड इस तरह दिगम्बर-सम्प्रदायमें दश भेद ही माने हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org