SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२३ सूत्र २७-२८-२९-३०-३१ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उक्त ध्यानके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-आतरौद्रधर्मशुक्लानि ॥ २९ ॥ भाष्यम्-तच्चतुर्विधं भवति । तद्यथा-आर्त रौद्रं धर्म शुक्लमिति । तेषाम् अर्थ-उपर्युक्त ध्यानके चार भेद हैं-यथा-आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यान । भावार्थ-अर्तिनाम दुःख अथवा पीडाका है । इसके सम्बन्धको लेकर जो ध्यान होता है, उसको आर्तध्यान कहते हैं । क्रोधादियुक्त क्रूर भावोंको रौद्र कहते हैं । इस तरहके परिणामोंसे युक्त जो ध्यान हुआ करता है, उसको रौद्रध्यान कहते हैं । जिसमें धर्मकी भावना या वासनाका विच्छेद न पाया जाय, उसको धर्मध्यान कहते हैं । क्रोधादिकी निवृत्ति होनेके कारण जिसमें शुचिता-पवित्रताका संबन्ध पाया जाय, उसको शुक्लध्यान कहते हैं । इन चार प्रकारके ध्यानोमेंसे सूत्र-परे मोक्षहेतू ॥ ३०॥ _ भाष्यम्-तेषां चतुर्णी ध्यानानां परे धर्मशुक्ले मोक्षहेतू भवतः । पूर्वे त्वार्तरौद्रे संसारहेतू इति॥ अत्राह-किमेषां लक्षणमिति । अत्रोच्यते___ अर्थ-ऊपर ध्यानके जो चार भेद बताये हैं, उनमेंसे अंतके दो ध्यान-धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्षके कारण हुआ करते हैं, और पूर्वके जो दो ध्यान हैं-आर्तध्यान और रौद्रध्यान वे संसारके कारण हैं। भावार्थ-आर्तध्यान और रौद्रध्यानमें मोहका प्रकर्ष-बढ़ता जाता है किंतु, धर्मध्यानमें वह नहीं पाया जाता, अतएव वह भी मोक्षका ही हेतु माना है। ऊपर ध्यानके जो चार भेद बताये हैं, उनके लक्षण क्या हैं ? इसके उत्तरके लिये आगेका व्याख्यान करते हैं। ___ भावार्थ-क्रमके अनुसार ध्यानके उक्त चार भेदोंमेंसे पहले आर्तध्यानका वर्णन करना चाहिये, आर्तध्यान भी चार प्रकारका है-अनिष्टसंयोग इष्टवियोग वेदनान्वितन और निदान । इनमेंसे पहले अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यानका स्वरूप बताते हैं सूत्र--आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तदिप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥ ३१ ॥ भाष्यम्-अमनोज्ञानां विषयाणां संप्रयोगे तेषां विप्रयोगार्थ यः स्मृतिसमन्वाहारो भवति तदार्सध्यानमित्याचक्षते । किं चान्यत्___ अर्थ-जो अपने मनका हरण करनेवाले नहीं हैं, या अनिष्ट हैं, ऐसे अरमणीय अथवा अनिष्ट विषयोंका संयोग हो जानेपर उनका वियोग होनेके लिये जो पुनः पुनः विचार किया जाता है, उसको पहला अनिष्टसंयोग नामका आर्तध्यान कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy