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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः यह उन पर होंका स्वरूप है, जोकि चारित्रमोहकर्मके उदयसे हुआ करती हैं । कर्मोंका संवर तथा क्षपण करनेके लिये प्रवृत्त हुए साधुजन इन परीषहोंके वशीभूत नहीं हुआ करते । उनको जीतकर मोक्ष - मार्ग में अग्रेसर हुआ करते हैं । ४१० ऊपर जिन जिन परीषहों के कारण बताये हैं, उनके सिवाय बाकी रहीं ग्यारह परीषहों के कारणका उल्लेख करनेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ भाष्यम् - वेदनीयोदये शेषा एकादश परीषहा भवन्ति ये जिने संभवन्तीत्युक्तम् । कुतः शेषाः ? एभ्यः प्रज्ञाज्ञानादर्शनालाभनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कार पुरस्कारेभ्य इति ॥ अर्थ -- उपर्युक्त परीषहोंसे जो बाकी रहती हैं, वे ग्यारह परीषह वेदनीयकर्मके उदयसे हुआ करती हैं, जिनके लिये पहले कहा जा चुका है, कि ये जिन भगवान के संभव हैं । वे कौनसी परीषह हैं, कि जिनसे शेष ये वेदनीय कर्मजन्य ग्यारह परीषह मानी जाती हैं ? तो उनके नाम इस प्रकार हैं -- प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, अदर्शनपरीषह, अलामपरीषह, नाग्न्यपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, निषद्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, याचनापरीषह, और सत्कारपुरस्कारपरीषह । भावार्थ — उक्त ग्यारह से शेष रहनेवाली ग्यारह परीषहोंके नाम इस प्रकार हैं- क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, चर्यापरीषह, शय्यापरीषह वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, और मलपरीषह । इनका अर्थ स्पष्ट है । ये परीषह कारणके अस्तित्वकी अपेक्षासे जिन भगवान् के संभव कही गई हैं । उक्त बाईस परीषहोंमेंसे एक जीवके एक कालमें कमसे कम कितनीं और अधिक से अधिक कितनी परीषह आकर उपस्थित हो सकती हैं, इस बात को बताने के लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - एकादयो भाज्या युगपदेकोनविंशतेः ॥ १७ ॥ भाष्यम् - एषां द्वाविंशतेः परीषहाणामेकादयो भजनीया युगपदेकस्मिन् जीवे आ एकोनविंशतेः । अत्र शीतोष्णपरीषहौ युगपन्न भवतः । अत्यन्तविरोधित्वात् । तथा चर्याशय्यानिपद्यापरीषहाणामेकस्य संभवे द्वयोरभावः ॥ अर्थ:: - उक्त बाईस परीषहोंमेंसे एक जीवके एक कालमें एकसे लेकर उन्नीस परीषह तक यथासंभव समझ लेनी चाहिये । अर्थात् किसी जीवके एक किसीके दो किसीके तीन किसीके चार और किसीके पाँच इसी तरह क्रमसे किसी जीवके उन्नीस परीषह भी एकसाथ हो सकती हैं । युगपत् बाईसों परीषह क्यों नहीं हो सकतीं ? यही बात यहाँपर समझनी चाहिये । इसका कारण यही है, कि एक तो शीत और उष्ण परीषह युगपत् नहीं हो सकती । क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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