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________________ सूत्र १६-१७-१८-१९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४११ शीत और उष्ण दोनों परस्परमें अत्यन्त विरुद्ध हैं। जहाँ शीतपरीषह होगी, वहाँ उष्णपरीषह नहीं होगी, और जहाँ उष्णपरीषह होगी, वहाँ शीतपरीषह नहीं हो सकती । अतएव एक परीषह घट जाती है । इसी तरह चर्या शय्या निषद्या इन तीन परीषहोंमें से एक कालमें एकका ही संभव हो सकता है, तीनोंका नहीं । क्योंकि चलना शयन करना और स्थित रहना ये तीनों क्रियाएं भी परस्परमें विरुद्ध हैं, अतएव इनमें से एक कालमें एक ही हो सकती है, दोका अभाव ही रहेगा। ____भावार्थ-शीत उष्णमेंसे एक और चर्या शय्या निषद्यामेंसे दो इस तरह तीन परीषहोंका एक कालमें अभाव रहता है । अतएव बाईस परीषहमें से तीनके घटजानेपर शेष परीषह उन्नीस रहती हैं । सो ही एक जीवके एक समयमें हो सकती हैं । ___ इस प्रकार संवरकी कारणभूत परीषहजयके प्रकरणानुसार उनके भेद आदिका वर्णन किया । अब उसके अनन्तर क्रमानुसार चारित्रका वर्णन करना चाहिये, अतएव उसके ही भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र--सामायिकछेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातानि चारित्रम् ॥ १८ ॥ भाष्यम्--सामायिकसंयमः छेदोपस्थाप्यसंयमःपरिहारविशुद्धिसंयमः सूक्ष्मसंपराय. संयमः यथारव्यातसंयम इति पञ्चविधं चारित्रम् । तत्पुलाकादिषु विस्तरेण वक्ष्यामः॥ अर्थ-चारित्र पाँच प्रकारका है-सामायिकसंयम, छेदोपस्थाप्यसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसंपरायसंयम, और यथाख्यातसंयम । इसका विशेष वर्णन आगे चलकर करेंगे, जब कि पलाक आदि निर्ग्रन्थ मुनियोंके भेदोंका उल्लेख किया जायगा। भावार्थ-संसारके कारणभूत कर्मोंके बन्धके लिये योग्य जो क्रियाएं उनका निरोध कर शुद्ध आत्म-स्वरूपका लाभ करनेके लिये जो सम्यग्ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति होती है, उसको चारित्र अथवा संयम कहते हैं। प्रकृतमें उसके सामायिक आदि पाँच भेद हैं, जिनके कि निर्देश स्वामित्व आदिका वर्णन आगे चलकर इसी अध्यायमें किया जायगा। यहाँ क्रमानुसार चारित्रके अनन्तर तपका वर्णन करते हैं। क्योंकि ऊपर संबरके . कारणोंमें तपको भी गिनाया है । तप दो प्रकारका है-एक बाह्य दूसरा अन्तरङ्ग । इनमें से पहले बाह्य तपके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥ ____भाष्यम्-अनशनम्, अवमौदर्यम्, वृत्तिपरिसंख्यानम्, रसपरित्यागः, विविक्तशय्यासनता, कायक्लेश इत्येतत्षद्विधं बाह्य तपः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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