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________________ सूत्र १२-१३-१४-१५ ॥] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्र-दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ भाष्यम्-दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ यथासङ्ख्यम् दर्शनमोहोदयेऽदर्शनपरीषहः लाभान्तरायोदयेऽलाभपरीषहः ॥ - अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्म और अन्तरायकर्मका उदय होनेपर क्रमसे अदर्शनपरीषह और अलाभपरीषह होती है । अर्थात् दर्शनमोहके उदयसे अदर्शनपरीषह और लाभान्तरायकर्मके उदयसे अलाभपरीषह होती है। भावार्थ-अदर्शन नाम अतत्त्वश्रद्धानका है। ये परिणाम दर्शनमोहके उदयसे हुआ करते हैं। कदाचित् महान् तपश्चरणमें रत साधुके भी सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे इस तरहके भाव होसकते हैं, कि शास्त्रोंमें लिखा है, कि तपश्चरणके प्रतापसे बड़ी बड़ी ऋद्धियाँ सिद्ध हो "जाया करती हैं, सो मालूम होता है, कि यह सब बात कथनमात्र ही है। क्योंकि इतने दिनसे घोर तपस्या करनेपर भी अभीतक मुझे कोई ऋद्धि प्रकट नहीं हुई । इस तरहके भावोंका होना ही अंदर्शनपरीषह है । आहारके लिये भ्रमण करनेपर भी कदाचित् लाभान्तरायके उदयसे आहारका लाभ न होनेपर चित्तमें व्याकुलताके हो जानेको ही अलाभपरीषह कहते हैं। इस प्रकार दोनों ही कर्मोकी उदयजन्य अवस्थाएं हैं। इनके वशीभूत न होनेको ही क्रमसे अदर्शनविनय और अलाभविनय समझना चाहिये। - सूत्र-चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥१५॥ भाष्यम्-चारित्रमोहोदये एते नाग्न्यादयः सप्त परीषहा भवन्ति ॥ अर्थ--नाग्न्यपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, निषद्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, याचनापरीषह, और सत्कारपुरस्कारपरीषह, ये सात परीषह चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे हुआ करती हैं। भावार्थ--निर्ग्रन्थ लिङ्गके धारण करनेको और उसकी बाधाके लिये आई हुई विपत्तियोंको नाम्यपरीषह कहते हैं। अनिष्ट पदार्थके संयोगमें अप्रीतिरूप भावके होनेको अरतिपरीपह कहते हैं। ब्रह्मचर्यको भंग करने आदिकी अपेक्षासे स्त्रियोंके द्वारा होनेवाले आक्रमणको स्त्रीपरीषह कहते हैं। ध्यान या सामायिकके लिये एक आसनसे स्थिर होजानेपर आसनकी कठिनताके अनुभवको निषद्यापरीषह कहते हैं। यह ढोंगी है, साधुवेशमें छिपा हुआचोर है,पापी है, दुष्ट है, इत्यादि अज्ञानियोंके द्वारा किये गये मिथ्या आक्षेपोंको या उनके द्वारा बोले गये दुर्वचनोंको आक्रोशपरीवह कहते हैं । संक्लेश या विपत्तिके समय उससे घबड़ाकर उसको दर करनेके लिये किसी भी वस्तुको अपने लिये माँगनेके भाव होनेको याचनापरीषह कहते हैं। अनेक तरहसे योग्य रहते हुए भी प्रसङ्गपर आदर या अग्रपद को न पाकर चित्तमें विचलता हो जानेको सत्कारपुरस्कारपरीषह कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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