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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ नवमोऽध्यायः उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, चर्यापरीषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपषिह, तृणस्पर्शपरीषह, और मलपरीषह। भावार्थ-ये ग्यारह परीषह वेदनीयकर्मके उदयसे हुआ करती हैं, और वेदनीय, कर्मका उदय तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनभगवान् के भी पाया जाता है, इस अपेक्षासे इन परीषहोंकी अरिहंतके भी संभवता बताई गई हैं। सूत्र--वादरसंपराये सर्वे ॥ १२ ॥ भाष्यम्-वादरसंपरायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति ॥ अर्थ-वादरसंपराय-नववे गुणस्थान तक सभी-बाईसों परीषह संभव हैं । भावार्थ-बादर नाम स्थूल कषायका है। जहाँतक स्थूल कषायका उदय पाया जाता है, उस नववे गुणस्थानको बादरसंपराय कहते हैं । वहाँतक सभी परीषहोंका संभव है। ___ बाईसों परीषहोंकी संभवता नाना जीवोंकी अपेक्षासे है, न कि एक जीवकी अपेक्षा । अथवा, एक जीवके भी भिन्न कालकी अपेक्षा सब परीषह संभव हैं। क्योंकि एक कालमें एक जीवके १९ से अधिक परीषह नहीं हो सकती, ऐसा आगे चलकर वर्णन करेंगे। इस प्रकार परीषहोंके स्वामियोंको बताकर साधनको बतानेके लिये अब यह बताते हैं, कि किस किस कर्मके उदयसे कौन कौनसी परीषह होती हैं। - सूत्र-ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ भाष्यम्-ज्ञानावरणोदये प्रज्ञाज्ञानपरीषहौ भवतः ॥ अर्थ---प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषह ज्ञानावरणकर्मके उदयसे हुआ करती हैं। भावार्थ--ज्ञानावरणकर्मके उदयसे ज्ञानका अभाव होता है । इसलिये उसके उदयसे अज्ञान परीषहका बताना तो ठीक है, किन्तु प्रज्ञापरीषह उसके उदयसे किस तरह कही जा सकती है ? क्योंकि प्रज्ञा तो ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होती है । अतएव ज्ञानभावको ज्ञानावरणके उदयसे बतानेका क्या कारण है ? । उत्तर-प्रज्ञा और प्रज्ञापरीषहमें अन्तर है । ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे अभिव्यक्त-प्रकट हुई बुद्धि विशेषको प्रज्ञा कहते हैं, और अपनी बुद्धि या ज्ञानका मद होना, इसको प्रज्ञापरीषह कहते हैं। ज्ञानका मद वहींतक होता है, जहाँतक कि अल्पज्ञता है, और अल्पज्ञताका कारण ज्ञानावरणकर्मका उदय ही है। अतएव प्रज्ञापरीषहको उसके उदयका कार्य बताना उचित और युक्त ही है। १-दिगम्बर--सम्प्रदायमें इस सूत्रका दो प्रकारकी क्रिया लगाकर दो तरहसे अर्थ किया है। एक तो सन्ति क्रिया लगाकर कारणकी अपेक्षा ग्यारह परीषह जिन भगवानके हैं, यह अर्थ, और दूसरा न संति क्रिया लगाकर कार्य रूपमें ग्यारह परीषह नहीं है, यह अर्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.brg
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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