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________________ सूत्र ७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-- निर्जरा वेदना विपाक इत्यनर्थान्तरम् । स द्विविधोऽबुद्धिपूर्वः कुशलमूलश्च । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाको योऽबुद्धिपूर्वकस्तमुद्यतोऽनुचिन्तयेदकुशलानुबन्ध इति । तपःपरीषहजयकृतः कुशलमूलः । तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् । शुभानुबन्धो निरनुबन्धो वेति । एवमनुचिन्तयन्कर्मनिर्जरणायैव घटत इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥ ९ ॥ अर्थ -- निर्जरा वेदना और विपाक ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । निर्जरा दो प्रकारकी हुआ करती है । – एक अबुद्धिपूर्वक दूसरी कुशलमूल । इनमें से नरकादिक गतियोंमें जो कर्मोंके फलका अनुभवन विना किसी तरहके बुद्धिपूर्वक प्रयोगके हुआ करता है, उसको अबुद्धिपूर्वक कहते हैं । इस निर्जरा के प्रति उद्यत जीवको कुशलानुबन्ध नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । तपके करनेसे तथा परीषहोंके जीतनेसे जो कर्मों की निर्जरा होती है, उसको कुशलमूल निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा ही कार्यकारी है । इस प्रकार इसकी गुणवत्ताका पुनः पुनः विचार करना चाहिये । अथवा इसकी शुभानुबंधता या निरनुबन्धताका भी चिन्तवन करना चाहिये । इस प्रकार पुनः पुनः विचार करनेवाला मुमुक्षु कर्मोंकी निर्जरा करनेकी तरफ ही प्रवृत्त हुआ करता है । ४०३ भावार्थ - आत्मा के साथ लगे हुए पौद्गुलिक कर्मोंका आत्मासे एकदेश वियोग होने को - कर्मों के एकदेश- आंशिक क्षयको निर्जरी कहते हैं । आत्मा के साथ बँधे हुए कर्म अपनी स्थितिको पूर्ण करके आत्मासे सम्बन्ध स्वयं ही छोड़ देते हैं। इसके लिये कोई खास प्रयत्न असाधारण कारणस्वरूप आवश्यक नहीं है। स्थिति पूर्ण होनेपर स्वयं ही कम आत्मासे सम्बन्ध छोड़कर झड़ जाते हैं । इसको अबुद्धिपूर्वक निर्जरा कहते हैं । क्योंकि इसमें कर्मोंको निजीर्ण करनेके लिये कोई भी बुद्धिपूर्वक निर्जराके कारणका प्रयोग नहीं किया जाता । यह अनादिकालसे ही होती चली आ रही है । इसका फल कुछ भी आत्म-कल्याण नहीं है । अतएव इसके विषय में अकुशलानुबन्धताका ही विचार किया जाता है । क्योंकि ऐसा विचार करनेसे आत्म-कल्याणकी कारणभूत निर्जराकी तरफ प्रवृत्ति होती है । 1 तप करने और परीषहोंके जीतने से कर्मों की स्थिति पूर्ण होने के पहले ही निर्जरा हो जाती है । अतएव इसके निमित्तसे जीव मोक्षके मार्ग में अग्रेसर बनता है, और इसी लिये इसको कुशलमूल कहते हैं । इसकी गुणवत्ताका चिन्तवन भी मोक्ष - मार्गको सिद्ध करनेवाला है । इसलिये मुमुक्षुओंको अवश्य ही इसका पुनः पुनः विचार करना चाहिये । इस प्रकार निर्जरानु प्रेक्षाका वर्णन किया ॥ ९॥ भाष्यम् – पञ्चास्तिकायात्मकं विविधपरिणाममुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलययुक्तं लोकं चित्रस्वभावमनुचिन्तयेत् । एवं ह्रस्य चिन्तयतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवतीति लोकानुप्रेक्षा ॥१०॥ १ - एकदेश कर्म संक्षयलक्षणा निर्जरा । दो भेदोंके नाम सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा ये भी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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