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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः अर्थ--लोकका स्वरूप पहले भी बता चुके हैं, कि यह पञ्चास्तिकायरूप है। जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाशके समूहस्वरूप है । नाना प्रकारसे परिणमन करनेवाला, उत्पत्ति स्थिति भेद अनुग्रह और प्रलय भावको धारण करनेवाला, तथा विचित्र-आश्चर्यकारी स्वभावसे युक्त है । इस प्रकार लोकके स्वरूपका बार बार चिन्तवन करना चाहिये । जो साधु इस प्रकार चिन्तवन करता है, उसके तत्त्वज्ञानमें विशुद्धि हुआ करती है। भावार्थ-लोकका चिन्तवन करनेसे तत्त्वज्ञान निर्मल होता है। क्योंकि वह तत्त्वोंके और उनके परिणमनादिके समुदायरूप ही है । इसके सिवाय परोक्ष इष्ट पदार्थोंकी तरफ श्रद्धा दृढ़ होती है, जिससे कि सिद्धिके साधनकी तरफ मुमुक्षु-साधुजन अग्रेसर हुआ करते हैं ॥१०॥ ___ भाष्यम्-अनादौ संसारे नरकादिषु तेषु भवग्रहणेष्वनन्तकृत्वः परिवर्तमानस्य जन्तो. विविधदुःखाभिहतस्य मिथ्यादर्शनाद्युपहतमतेर्ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायोदयाभिभूतस्य सम्यग्दर्शनादि विशुद्धो बोधिदुर्लभो भवतीत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य बोधिदुर्लभत्वमनुचितयतो बोधि प्राप्य प्रमादो न भवतीति बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा॥११॥ __ अर्थ-यह चतुर्गतिरूप संसार अनादि है । अतएव संसारी-प्राणी भी नरकादिक चारों गतियोंमें अनादिकालसे ही परिभ्रमण कर रहा है। नारक आदि भवोंके पुनः पुनः ग्रहण करनेमें ही सदासे प्रवृत्त है। एक भवको छोड़कर दूसरे भवको धारण कर पुनरपि पहले ही भवोंको धारण करनेरूप परिवर्तन यह प्राणी अनादि संसारमें अनन्त बार कर चुका है । संसारकी चारों गतियोंमें अनन्त बार परिवर्तन करने के कारण नाना प्रकारके दुःखोंसे अभिहत-पीड़ित है, और हो रहा है। इस अनादि परिभ्रमणका कारण मिथ्यादर्शन है। मिथ्यादर्शनके उदयसे इस जीवकी मति-समीचीन-यथार्थ बुद्धि नष्ट हो चुकी है, और इसके साथ ही यह जीव ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातियाकर्मोंके उदयसे अभिभूत-व्याकुल हो रहा है, जिससे कि इसकी ज्ञान दर्शन सम्यक्त्व और वीर्यशक्ति लुप्तप्राय हो गई है, तथा विपरीत बन गई है। अतएव इस जीवको सम्यग्दर्शनादिके द्वारा अत्यन्त विशुद्ध बोधि-सम्यग्ज्ञानका लाभ दुःशक्य-दुःसाध्य है। इस प्रकार साधुओंको बोधिकी दुर्लभताका पुनः पुनः चिन्तवन करना चाहिये । जो इस प्रकारसे बोधिदुर्लभताका चिन्तवन करता रहता है, वह जीव बोधिको पाकर प्रमादी नहीं बनता। भावार्थ-अनादि कालसे कर्मके पराधीन इस प्राणीको परिभ्रमण करते हुए एक रत्नत्रयके सिवाय सभी वस्तुओंका लाभ अनन्त बार हुआ, किन्तु रत्नत्रयकी प्राप्ति एक बार भी नहीं हो सकी । अतएव सबसे अधिक यही दुर्लभ है । इसके विना जीव नाना दुःख-परम्पराओंसे पीड़ित ही बन रहा है । इसलिये सम्पूर्ण सुखका साधन रत्नत्रयका लाभ हो जानेपर विवेकी साधु प्रमादी कैसे बन सकते हैं ? वे उसको पाकर उसकी रक्षा और पुष्टिमें ही प्रवृत्त हुआ करते हैं। इस प्रकार बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षाका वर्णन हुआ ॥ ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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