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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः किन्तु नदीके वेगमें पड़ा हुआ कौआ, अतिक्लेश अथवा मरणको प्राप्त होता है, अथवा हेमन्त या शीत ऋतुमें घीके घड़ेमें प्रविष्ट - घुसा हुआ चूहा, तथा सरोवर में सदा निवास करनेवाला कछुआ गोके वाड़े में फँसकर जिस दशा को प्राप्त हुआ करता है, इसी तरह मांसकी डली में लोभके वश फँसा हुआ बाजपक्षी या कटिया - लोहे के कांटेमें लगे हुए मांस - खण्ड के भक्षणकी गृद्धि - अतिशय लुब्धताको रखनेवाला मच्छ जिस दशाको प्राप्त हुआ करता है, उसी दशा को जिव्हा इन्द्रियके सभी लम्पटी प्राप्त हुआ करते हैं, यह बात इन उदाहरणोंसे सिद्ध होती है । ४०२ घ्राणेन्द्रिय - सर्पको पकड़नेवाले ऐसी औषधको सर्पके निवासस्थानके पास रख देते हैं, कि जिसकी गंध उसको अति प्रिय मालूम होती है । सर्प उस गंधके लोभसे वहाँ आता है, और पकड़ा जाता है । इस तरह नासिका इन्द्रियके वशीभूत हुए सर्पकी जो दशा होती है, अथवा मांस के गंधका अनुसरण करनेवाले चूहेको जो अवस्था भोगनी पड़ती है, वही दशा सम्पर्ण नासिका इन्द्रियके लम्पटियों की हुआ करती है । चक्षुरिन्द्रिय- इस इन्द्रियके विषयमें आसक्त प्राणी भी स्त्री - दर्शन के निमित्तसे अर्जुन चोर के समान अथवा दीपकके प्रकाशको देखकर चञ्चल हो उठनेवाले पतङ्ग - कीड़े की तरह विनिप्रात- पतितदशा या मृत्युको प्राप्त होते हुए ही देखे जाते हैं । श्रोत्रेन्द्रिय — इस इन्द्रियके लम्पटी भी तीतर कपोत और कपिञ्जल चातक- पपीहाकी तरह अथवा गाये गये गतिकी ध्वनिको सुनते ही चंचल चित्त हो उठनेवाले हरिणकी तरह विनिपातनाशको ही प्राप्त होते हैं । . इस तरह संवरके अभिलाषियोंको इन आस्रवद्वाररूप इन्द्रियोंकी अवद्यता - निकृष्टता का विचार करना चाहिये । जो निरंतर इस प्रकार चिन्तवन करता रहता है, वह भव्य साधु सम्पूर्ण अपाय - नाशके कारणभूत इन आस्रवोंका निरोध करनेके लिये ही चेष्टा करनेमें दत्तचित्त हो जाता है । तथा मोक्षका साधन किया करता है । इस प्रकार आस्रवानुप्रेक्षाका स्वरूप समझना चाहिये ॥७॥ भाष्यम् - संवरांश्च महाव्रतादिगुप्त्यादिपरिपालनाद्गुणतश्चिन्तयेत् । सर्वे ह्येते यथोतास्रवदोषाः संवृतात्मनो न भवन्तीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो मतिःसंवरायैव घटत इतिसंवरानुप्रेक्षा ॥ ८ ॥ अर्थ —-संवरका स्वरूप पहले बता चुके हैं, कि आस्रव के निरोध-रोकने - रुकावटको संवर कहते हैं। यह संवर पंच महाव्रतादिरूप तथा तीन गुप्ति आदि स्वरूप है । जब कि आस्रव सम्पूर्ण अपाय-नाशका कारण है, और संवर उसका प्रतिपक्षी है, तो यह बात स्वयं ही सिद्ध हो जाती है, कि संवर सम्पूर्ण कल्याणोंका कारण है । अतएव संवरकी गुणवत्ता - महत्ताका चिन्तवन करना चाहिये । विचार करना चाहिये, कि ऊपर जो आस्रव के दोष बताये हैं, वे संवर सहित जीवको कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। इस प्रकार संवरकी गुणवत्ताका विचार करते रहनेवाले जीवकी बुद्धि संवरको सिद्ध करने के लिये ही प्रवृत्त - तैयार हुआ करती है । इस प्रकार संवरानुप्रेक्षाका वर्णन किया ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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