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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः शुचित्वादशुचि शरीरमिति । किं चान्यत्-अशुचिभाजनस्वात् अशुचीनां खल्वपि भाजनं शरीरं कणनासाक्षिदन्तमलस्वेदश्लेष्मपित्तमूत्रपुरीषादीनामवस्करभूतं तस्मादशुचीति । किं चान्यत् -अशुच्युद्भवत्वात् । एषामेव कर्ण मलादीनामुद्भवः शरीरं, तत उद्भवन्तीति। अशुचौ च गर्भसंभयाति अशुचि शरीरम् । किं चान्यत्-अशुभपरिणामपाकानुबंधादातवे विन्दोराधानात्प्रभृति खल्वपि शरीरं कललार्बुदपेशीधनव्यूहसंपूर्णगर्भकौमारयौवनस्थविरभावजन केनाशुभरिणामपाकेनानुबद्धं दुगन्धि पूतिस्वभावं दुरन्तं तस्मादशुचि । किं चान्यत् ।-अशक्यप्रतीकारत्वात्' अशक्यप्रतीकारं खल्वापि शरीरस्याशुचित्वमुद्वर्तनरूक्षणस्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासयुक्तिं माल्यादिभिरप्यस्य न शक्यमशुचित्वमपनेतुमशुच्यात्मकत्वाच्छुच्युपघातकत्वाच्चेति । तस्मादशुचि शररिमिति । एवं ह्यस्य चिन्तयतः शरीरे निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च शरीरप्रहाणाय घटत इति अशुचित्वानुप्रेक्षा ॥६॥ अर्थ-अशुचित्वानुप्रेक्षाका अभिप्राय यह है, कि शरीरकी अपवित्रताका विचार करना । संवर और निर्जराके अभिलाषी मुमुक्षु भव्योंको शरीरके विषयमें निरन्तर यह चिन्तवन करना चाहिये, कि यह शरीर नियमसे अशुचि-अपवित्र है । अशुचि किस प्रकारसे है ? किन किन कारणोंसे यह अपवित्र है ? ऐसी जिज्ञासा कदाचित् हो, तो उसका उत्तर यही है, कि इसकी अपवित्रताके अनेक कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यह है, कि जिन कारणोंसे इसकी उत्पत्ति होती है, वे इसके पूर्व और उत्तर कारण अपवित्र हैं । दूसरा कारण यह है, कि यह अपवित्र पदार्थोंका भाजन-आश्रय है । तीसरा कारण है, कि यह शरीर अशुचि पदार्थोंका उद्भव-उत्पत्ति-स्थान है। कारण कि अशुभ परिणामोंके द्वारा संचित पाप-कर्मके उदयसे यह अनबद्ध रहता है, और पाँचवाँ कारण है, कि इसकी अपवित्रता किसी भी उपायके द्वारा दूर नहीं की जा सकती । इस प्रकार अनेक कारणोंसे शरीरकी अपवित्रता सिद्ध है । इन सबका सारांश यह है कि: शरीरका आदि-कारण शुक्र और शोणित है, क्योंकि इन्हींके द्वारा मनुष्य-शरीर उत्पन्न हुआ करता है । गर्भज शरीरमात्रके मूल उपादान कारण ये दो पदार्थ ही हैं, और ये दोनों ही अत्यंत अशुचि हैं। अतएव आदि कारणकी अपेक्षा शरीर अपवित्र है। शरीरका उत्तर-कारण आहार परिणाम है। सो इस अपेक्षासे भी शरीर अशचि ही है। क्योंकि जिसको यह जीव-मनुष्य प्राणी ग्रासरूपसे ग्रहण करता है, वह कवलाहार खानेके बाद ही-गलेके नीचे उतरते ही श्लेष्माशय-आमाशय को प्राप्त होकर उसके श्लेष्मके द्वारा द्रवीभूत हो जाता है। क्या वह अवस्था । अपवित्र नहीं है? अत्यन्त अपवित्र है। इसके अनन्तर वह आहार पित्ताशयको प्राप्त हो कर जब पकने लगता है, उस समयमें वह अम्लरूप अवस्थाको धारण किया करता है। वह अवस्था भी अत्यन्त अपवित्र ही है । पक जानेके बाद वह आहार वाय्वाशयको प्राप्त होता है। उस समय वह वायुके द्वारा विभक्त हुआ करता है। उस के खल भाग और रस भाग इस तरह दो पृथक् पृथक् भाग हो जाते हैं । खल भागके द्वारा मत्र और परीष-विष्टा आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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