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________________ " सूत्र ७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसत्रम् ३९९ मल बनते हैं, और रस भागके द्वारा शोणित-रक्त तयार हुआ करता है। इसके अनन्तर क्रमसे इसकी कार्यकारण-पद्धति इस प्रकार है- रक्त से मांस, मांससे मेदा, मेदासे अस्थिहड्डी, अस्थिले मज्जा, और मज्जाले शुक्र-वीर्य तैयार होता है। श्लेष्म से लेकर शुक्र पर्यन्त आहार के सभी विपरिणाम अशुचि ही हैं । ये ही सब शरीरके उत्तरकारण हैं । अतएव इनको अशुचिता के कारण हा शरीर अशुचि है । इस प्रकार शरीरकी अपवित्रताको बतानेके लिये पहला कारण जो बताया है, सो ठीक ही है, कि आदि और उत्तर कारणोंकी अपवित्रताके कारण यह अपवित्र है । दूसरे कारणका तात्पर्य यह है, कि जितने भी अशुचि पदार्थ हैं, उन सबका आधार शरीर ही है । कान नासिका आँख और दातके मल शरीर के आश्रयसे ही रहते हैं, और स्वेद -- पसीना श्लेष्म-र - खखार पित्त मूत्र और पुरीष-विष्टा आदि अपवित्र पदार्थोंका अवस्कर - कूड़ादान शरीर ही है । अतएव यह अपवित्रताको ही धारण करनेवाला है । तीसरे कारणका आशय इस प्रकार है— कर्णमल आदि जितने अशुचि पदार्थ हैं, उन सबका आधार ही नहीं उत्पत्ति - स्थान भी शरीर ही है । शरीर के द्वारा ही ये सब मल उत्पन्न हुआ करते हैं । नव द्वारोंसे बहनेवाले सभी मलों की उत्पत्ति शरीरसे ही होती है । तथा गर्भके अशुचि होनेसे ही शरीर उद्भूत पैदा होता है, इसलिये भी शरीर अशुच्युद्भव है - अपवित्र है । चौथा कारण-यह शरीर अशुभ परिणामों के द्वारा संचित पापकर्मों के उदयसे अनुबद्ध है, इसलिये अशुचि है । माता के ऋतु-काल में पिता के वीर्य-बिंदुओं के आधान - गर्भाधान के समय से ही लेकर यह शरीर क्रमसे उन अनेक अवस्थाओंसे अनुबद्ध हुआ करता है, जो कि कलल - जरायु (गर्भको आच्छादन - ढाकनेवाला चर्म ) अर्बुद - पेशी घन - व्यूह संपूर्ण गर्भ कौमार यौवन और स्थिवर भावोंको उत्पन्न करनेवाले अशुभ परिणामोंके उदयरूप हैं। इसके सिवाय यह शरीर स्वभाव से ही दुर्गन्धियुक्त और सड़ने गलनेवाला है, तथा इसका अन्त दुःखरूप ही है । इस कारण से भी शरीर अपवित्र है । I पाँचवाँ कारण यह है, कि इसकी अशुचिताका प्रतीकार अशक्य है । कोई भी ऐसा उपाय नहीं है, कि जिससे शरीरकी अपवित्रता दूर की जा सके । अनेक प्रकारके उद्वर्तनउबटन करके भी निर्मल नहीं बनाया जा सकता । नाना तरहके रूक्षण प्रयोगोंको करके भी उसकी स्निग्धता दूर नहीं कर सकते । यथायोग्य स्नान करके भी इसको स्वच्छ नहीं बना सकते । चन्दन कस्तूरी केशर आदि उत्तमोत्तम पदार्थों का अनुलेप- लेप करके भी इसको कान्तियुक्त नहीं बना सकते । अनेक प्रकार के पदार्थोंकी सुगन्धित धूप देकर भी इसको सुगन्धित नहीं बना सकते । पुनः पुनः घिस घिस कर घोनेसे भी इसको लावण्ययुक्त नहीं बना सकते । इतर १ - रसाद्रक्तं ततोमांसं मांसान्मेदः प्रवर्तते । मेदतोऽस्थि ततो मजे मज्जाच्छुकं ततः प्रजा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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