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________________ ३९६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः जीव संसारका नाश करनेमें ही प्रयत्नशील होता है । इस प्रकार संसारके स्वरूपका पुनः पुनः विचार करनेको ही संसारानुप्रेक्षा कहते हैं। भावार्थ-संसार नाम संसरण-परिभ्रमणका है । इसमें भ्रमण करनेवाले जीवको स्वभावसे ही हरएक प्रकारकी वस्तुकी प्राप्ति होती है । किन्तु मोह और अज्ञानके वशीभूत हुआ किसीको इष्ट और किसीको अनिष्ट समझता है, तथा इष्टकी प्राप्तिमें सुखका और अनिष्टकी प्राप्तिमें दुःखका अनुभव किया करता है । वास्तवमें न कोई वस्तु इष्ट और सुखका कारण है, और न कोई अनिष्ट और दुःखका ही कारण है । अतएव ज्ञानी जीव सम्पूर्ण पर वस्तुओंके संयोगमात्रको दुःखका ही कारण समझकर उद्वेग और वैराग्यको प्राप्त हुआ करता है, तथा विरक्त हो कर निर्वाणकी सिद्धिमें प्रयत्नशील होता है । इस प्रकार संसारके स्वरूपका पुनः पुनः विचार करना संसारानुप्रेक्षा है और संसारसे विरक्त होना ही उसका वास्तविक फल है ॥ ३ ॥ भाष्यम्-एक एवाहं न मे कश्चित्स्वः परो वा विद्यते। एक एवाहं जाये । एक ग्व निये । न मे कश्चित्स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति प्रत्यंशहारी वा भवति । एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहानुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा ॥४॥ ____ अर्थ-इस संसारमें मैं अकेला ही हूँ। यहाँपर मेरा कोई न स्वजन है, और न कोई परजन । मैं अकेला ही उत्पन्न होता है, और अकेला ही मृत्यको प्राप्त होता है। जिसको यहाँपर मेरा स्वजनसंज्ञक अथवा परजनसंज्ञक कहा जाता है, वह भी कोई ऐसा नहीं है, जो कि मेरे व्याधि जरा और मरण आदि दुःखोंको दूर कर सके । सर्वथा दूर करना तो दूर रहा, उसके अंश अथवा अंशांशको दूर करने या बाँटनेमें भी कोई समर्थ नहीं हो सकता । जिन कर्मोंका बंध मैंने किया है, उनके फलका अनुभव करनेवाला मैं अकेला ही हूँ । इस प्रकार अपने एकाकीपनेका चिन्तवन करना चाहिये। जो मुमुक्षु-मोक्षाभिलाषी निरन्तर इस प्रकारसे चिन्तवन करता रहता है, उसको स्वजनसंज्ञक प्राणियोंमें स्नेह या अनुरागका प्रतिबन्ध नहीं होता । वह उनको अपना समझकर उनके विषयमें मोहित नहीं होता, और इसा लिये वह उनके निमित्तसे पापकर्म करनेसे पराङ्मुख रहता या विषयोंसे विरक्त रहा करता है । इसी प्रकार उसको परजनसंज्ञक प्राणियोंमें द्वेषका प्रतिबन्ध-रुकावट नहीं होती। उनको वह पर समझकर उनका अकल्याण आदि करनेमें भी प्रवृत्त नहीं होता, और इसी लिये वह सबसे वीतद्वेष या निर्वैर रहा करता है । फलतः एकत्वका चिन्तवन करनेवाला जीव राग द्वेषसे रहित होकर निःसङ्गताको प्राप्त हो जाता है, और वह मोक्षके लिये ही प्रयत्न किया करता है। इसीको एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं। ___ भावार्थ-संसारमें परिभ्रमण करते हुए भी अपनी आत्माकी एकाकिताका पुनः पुनः विचार करनेको एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । क्योंकि जन्म मरण जरा और व्याधि आदि अवस्थाओंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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