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________________ ३९५ सूत्र ७ ।] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमभूत्रम् या देव हो जाता है । कभी मनुष्य होकर नारकी तिर्यश्च मनुष्य या देव हो जाता है, तो कभी देव होकर तिर्यञ्च अथवा मनुष्य हो जाता है। इसी प्रकार अनादि कालसे संसारी जीवका चारों गतियोंमें गाढीके पहियेकी तरहसे परिभ्रमण हो रहा है । अतएव सभी संसारी जीव इसके स्वजन अथवा परजन कहे जा सकते हैं। अथवा इस परिवर्तनशील संसारमें स्वजन परजनकी कोई व्यवस्था भी तो नहीं बनती। क्योंकि एक ही जीव माता होकर बहिन भार्या या पुत्री हो जाता है, तो कोई बहिन होकर माता स्त्री या पुत्री हो जाता है । कोई स्त्री होकर बहिन पुत्री या माता हो जाता है, तो कोई पुत्री होकर माता बहिन स्त्री हो जाता है । तथा पिता होकर कोई भाई पुत्र या पौत्र-नाती बन जाता है, तो कोई भाई होकर पिता पुत्र अथवा पौत्र हो जाता है। कोई पौत्र होकर पिता भाई अथवा पुत्र बन जाता है, तो कोई पुत्र होकर पिता भाई अथवा पात्र हो जाता है। जो स्वामी है, वह जन्मान्तरमें अपने सेवकका सेवक बन जाता है, और जो सेवक है, वह भवान्तरमें अपने स्वामीका स्वामी बन जाता है। अर्थात् अपने अपने कर्मके अनुसार चतुर्गतियोंमें भ्रमण करनेवाले जीवका किसीके भी साथ कोई नियत सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता, कि अमुक जीवके साथ अमुकका सदाकाल यही सम्बन्ध रहेगा। क्योंकि जो इस जन्ममें शत्रु है, वह जन्मान्तरमें अपना मित्र होता हुआ भी देखा जाता है, और जो मित्र है, वही कदाचित् भवान्तरमें अपना शत्रु बनता हुआ नजर पड़ता है। जो पुरुष है, वही मर कर स्त्री अथवा नपुंसक पर्यायको धारण कर लेता है, और जो स्त्री है, वह मरकर पुरुष अथवा नपुंसक हो जाता है, अथवा जो नपुंसक है, वही मरकर स्त्री अथवा पुरुष हो जाता है। इस प्रकार अनादि कालसे ये सभी संसारी प्राणी मुख्यतया चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण कर रहे हैं, और राग द्वेष तथा मोहसे अभिभूत-विह्वल रहनेके कारण विषयोंकी तृष्णाको छोड़ नहीं सकते, और इसी लिये परस्परमें एक दूसरेका भक्षण करने तथा ताडन वध बन्धन अभियोग ( दोषारोपण) और आक्रोश निंदा अथवा कटु भाषण आदि में प्रवृत्त हुआ करते हैं । तथा तज्जनित अति तीव्र दुःखोंको भोगा करते हैं। अतएव मुमुक्षु प्राणियोंको संसारके स्वरूपका पुनः पुनः इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये, कि अहो संसार यह द्वन्द्वाराम और स्वभावसे ही कष्टरूप है । अर्थात् यह संसार इष्ट और अनिष्ट सुख और दुःखरूप युगल धर्मका आश्रयभृत एक प्रकारका उपवन है, परन्तु वास्तवमें इसका स्वभाव दुःख ही है। क्योंकि जिसको संसारमें सुख या इष्ट विषय समझते हैं, वह भी वास्तवमें दुःख ही हैं। इस प्रकार निरन्तर चिन्तवन करनेवाले मुमुक्षु प्राणीको संसारसे भय उत्पन्न हो कर उद्वेग-व्याकुलताकी प्राप्ति होती है। और उससे पुनः निर्वेद-वैराग्य सिद्ध हो जानेपर वह १-इनकी गणना पहले अध्यायमें बता चुके हैं। मुख्य भेद ८४ लाख हैं, किन्तु उत्तरोत्तरभेद अधिक है। २-" यत्सुखं लौकिकी रूढिस्तद्दःखं परमार्थतः" -पंचाध्यायी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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