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________________ रायचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः पीडित चित्त रहना, एवं आत्मघात या पराघातसे जन्य मृत्यु आदि अनेक कारणोंसे उत्पन्न दुःखोंसे आक्रान्त-ग्रस्त प्राणीका भी संसारमें कोई भी शरण नहीं है। कोई भी जीव इस प्राणीको इनदुःखोंसे बचानेके लिये समर्थ नहीं है । संवरके अभिलाषियोंको सदा इस प्रकारसे अशरणताका विचार करना चाहिये । क्योंकि जो निरन्तर इस प्रकार चिन्तवन किया करता है, कि मैं नित्य ही अशरण हँ-मेरा कहीं कभी कोई भी रक्षक-सांसारिक दुःखोंसे बचानेवाला नहीं है, वह उस भाव. नामें दृढ होकर सदाके लिये उद्विग्न-विरक्त चित्त हो जाया करता है। वह संसारके किन्हीं भी विषयोंमें आसक्त नहीं हुआ करता । अनेक प्रिय-इष्ट वस्तुओंको पाकर भी उनमें उसकी रुचि अथवा प्रीति नहीं हआ करती, और आप्रिय अनिष्ट वस्तओंको पाकर उनमें द्वेष या अरतिका भाव नहीं हुआ करता, तथा उनके लाभालाभकी चिन्ता भी नहीं हुआ करती । अशरणताका विचार करनेवाला अरहंत भगवानके शासनमें निस विधिका वणन किया गया है, उसीके अनुकूल चलनेकी चेष्टा किया करता है, और वह उसीको परम शरण समझता है । अर्थात् वह समझता है, कि जिन भगवानने ससारसे छुटनेका जो उपाय बताया है, वही जीवके लिये शरण है, अन्य कोई भी शरण नहीं है । अतएव वह संसारिक विषयोंमें आसक्त भी नहीं होता, और तज्जन्य दुःखोंसे वह पीडित भी नहीं होता । क्योंकि कर्म-फलकी अवश्यभोग्यताका विचार करनेसे प्राप्त, इष्ट अनिष्ट वस्तुओंके संयोगमें वैराग्य भावना अथवा परिणामोंकी समता जागृत होती है, और सर्वज्ञ वीतराग अरिहंत भगवान्के प्ररूपित सत्य-सिद्धान्तमें श्रद्धा दृढ़ होती है ॥ २॥ भाष्यम्-अनादी संसारे नरकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु चक्रवत्परिवर्तमानस्य जन्तोः सर्व एव जन्तवः स्वजनाः परजना वा । न हि स्वजनपरजनयोर्व्यवस्थाविद्यते। माता हि भूत्वा भगिनी भर्या दुहिता च भवति । भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति । भार्या भूत्वा भगिनी दुहितामाता च भवति। दुहिता भूत्वा माता भगिनी भार्या च भवति । तथा पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति । भ्राता भूत्वा पिता पुत्रः पौत्रश्च भवति । पौत्रो भूत्वा पिता भ्राता पुत्रश्च भवति । पुत्रो भूत्वा पिता भ्राता पौत्रश्च भवति । भर्ता भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा भर्ता भवति । शत्रुभूत्वा मित्रं भवति। मित्रं भूत्वा शत्रुर्भवति । पुमान भूत्वा स्त्री भवति, नपुंसकं च । स्त्री भूत्वा पुमान्नपुंसकं च भवति । नपुंसकं भूत्वा स्त्री पुमांश्च भवति । एवं चतुरशीतियोनिप्रमुखशतसहस्रेषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिरनिवृत्तविषयतृष्णरन्योन्यभक्षणाभिघातबधबन्धाभियोगाकोशादिजीनतानि तीव्राणि दुःखानि प्राप्यन्ते । अहो द्वन्द्वारामः कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत् । एवं यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विनस्य निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा ॥३॥ अर्थ-संसार अनादि है । उसमें पड़ा हुआ जीव नरक तिर्यग्योनि मनुष्य और देवपर्यायके ग्रहण करनेमें वक्रकी तरह परिवर्तन-परिभ्रमण करता रहता है । कभी नरकसे निकलकर तिर्यञ्च अथवा मनुष्य हो जाता है, तो कभी तिर्यश्च होकर नारकी तिर्यश्च मनुष्य . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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