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________________ सूत्र । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३९३ अर्थ-अनुप्रेक्षा बारह हैं, जोकि यहाँ इस अनित्यानुप्रेक्षा आदि सूत्रमें गिनाई गई हैं। अनुप्रेक्षा नाम पुनः पुनः चिन्तवन करनेका है। चिन्तवनके विषय अनित्यत्व आदि बारह यहाँपर गिनाये हैं। अतएव विषयभेदकी अपेक्षा अनप्रेक्षाओंके भी बारह भेद होते हैं। विषयके वाचक अनित्य आदि शब्दोंके साथ अनुप्रेक्षा शब्द जोड़नेसे उनके नाम इस प्रकार हो जाते हैंअनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अन्यत्वानुप्रेक्षा, अशुचित्वानुप्रेक्षाआस्रवानुप्रेक्षा, संवरानुप्रेक्षा, निर्जरानुप्रेक्षा, लोकानुप्रेक्षा, बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा, और धर्मस्वाख्या-- तत्त्वानुप्रेक्षा। शरीर शय्या आसन वस्त्र आदि बाम और अभ्यन्तर द्रव्य तथा अन्य समस्त संयोगमात्र अनित्य हैं, ऐसा पुनः पुनः चिन्तवन करना इसको अनित्यानुप्रेक्षा कहते हैं । संवरके अभिलाषियोंको संयोगमात्रके विषयमें इस प्रकार अनित्यत्वका चिन्तवन अवश्य करना चाहिये । क्योंकि इस प्रकार निरंतर चिन्तवन करनेसे उनमें-विषयभूत द्रव्योंमें अथवा संयोगमात्रमें अभिष्वङ्ग-आसक्ति नहीं हुआ करती, और उनका वियोग हो जानेपर तज्जन्य दुःख भी नहीं हुआ करता । अथवा जो इस प्रकार अनित्यत्वका चिन्तवन करता है, उसके मनमें यह चिन्तारूप अर्ति-पीड़ा नहीं हुआ करती, कि हाय मुझे कभी भी इन विषयोंके वियोगसे उत्पन्न दुःख न हो । क्योंकि वह सम्पर्ण संयोगोंको अनित्य समझता है। अतएव उसके वियोगका भय नहीं होता और उसके संवरकी सिद्धि हुआ करती है ॥ १ ॥ भाष्यम्-यथा निराश्रये जनविरहिते वनस्थलीपृष्ठे बलवता क्षुत्परिंगतेनाभिषैषिणा सिंहनाभ्याहतस्य मृगशिशोः शरणं न विद्यते एवं जन्मजरामरणव्याधिप्रियविप्रयोगाप्रियसं. प्रयोगेप्सितालाभदारिद्यदौर्भाग्यदौर्मनस्यमरणादिसमुत्थेन दुःखेनाभ्याहतस्य जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो नित्यमशरणोऽस्मीति नित्योद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेष्वनभिष्वङ्गो भवति । अर्हच्छासनोक्त एव विधौ घटते तद्धि परं शरणमित्यशरणानुप्रेक्षा ॥२॥ ___ अर्थ--जहाँ किसी भी प्रकारका आश्रय नहीं पाया जाता-लुक छिपकर बैठनेके योग्य जहाँपर कोई भी घर आदि दिखाई नहीं पड़ता और जो मनुष्योंके संचार आवा-गमनसे रहित है-जहाँ कोई रक्षक मनुष्य दृष्टिगत नहीं होता, ऐसी अरण्यानी-बड़ी भारी वनी-अटवीमें अत्यन्त बलवान और .क्षुधासे ग्रस्त-पीड़ित और इसी लिये मांसके अभिलाषी किसी सिंहके द्वारा आक्रान्त-पकड़े हुए हिरणके बच्चेके लिये जिस प्रकार कोई भी शरण नहीं होता-उसकी रक्षा करनेमें कोई भी समर्थ नहीं रहा करता, उसी प्रकार जन्म-उत्पत्ति, जरा-वृद्धावस्था, मरण-आयुके पूर्ण होजानेसे शरीरका वियोग, व्याधि-अनेक प्रकारके शारीरिक रोग, किसी भी इष्ट वस्तु या प्राणीका वियोग, अनिष्ट वस्तु या किसी वैसे ही प्राणीका संयोग, अभिलषित-चाही हुई वस्तुका लाभ न होना, दरिद्रता-गरीबी, दौर्भाग्यसौभाग्यहीनता, दौर्मनस्य-मनमें चिन्ता आदिका रहना अथवा रागद्वेष आदि कषायोंकी अर्तिसे ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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