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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ नवमोऽध्यायः प्रोक्ताः प्रव्राजको दिगाचार्यः श्रुतोद्देष्टा श्रुतसमुद्देष्टा आम्नायार्थवाचक इति । तस्य ब्रह्मचर्यस्येमे विशेषगुणा भवन्ति । अब्रह्मविरतिव्रतभावना यथोक्ता इष्टस्पर्शरसरूपगन्धशब्दविभूषानभिनन्दित्वं चेति ॥१०॥ अर्थ-परिग्रहके मूलभेद दो हैं-बाह्य और अभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह दश प्रकारका हैक्षेत्र वास्तु आदि । अभ्यन्तर परिग्रह १४ प्रकारका है-मिथ्यात्व आदि। दोनों मिलाकर २४ प्रकारके परिग्रह और शरीर अन्न पान आदिके आश्रयसे होनेवाले भावदोषके परित्यागको बताई हैं, त्याग-धर्म कहते हैं॥॥शरीर और धर्मोपकरण-जोकि पहले धर्मकी साधन-सामग्री कमंडलु आदि उनमें भी ममत्व भाव न होना, आकिञ्चन्य-धर्म है॥९॥व्रतोंका पालन करनेके लिये अथवा ज्ञानकी सिद्धि या वृद्धिके लिये यद्वा कषायोंका परिपाक करनेके लिये-जिससे कि क्रोधादि कषाय अपना फल देने में असमर्थ हो जाँय, अथवा जल्दी ही उदयमें आकर मंद फल देकर, अथवा न देकर आत्मासे सम्बन्ध छोड़ दें, इसके लिये गुरुकुलमें निवास करनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं ॥ १० ॥ ब्रह्मचर्यका आशय-उसके धारण करनेका प्रयोजन यह है, कि स्वतन्त्र न रहना और सदा गुरुकी अधीनतामें ही निवास करना, तथा गुरुकी आज्ञाका पालन करनेमें सदा तयार रहना, स्वच्छन्द विहारको छोड़कर जिनकी सेवामें रहते हुए और उनकी आज्ञाका पालन करते हुए, ज्ञान चारित्र आदि गुणोंको सिद्ध किया जाता है, या करना चाहिये, वे गुरु आचार्य कहे जाते हैं। उनके पाँच भेद हैं-प्रव्राजक, दिगाचार्य, श्रुतोद्देष्टा, श्रुतसमुद्देष्टा और आम्नायार्थवाचक । दीक्षा देनेवालोंको प्रव्राजक, अनुज्ञामात्र देनेवालोंको दिगाचार्य, आगमका प्रथम पाठ देनेवालोंको श्रुतोद्देष्टा, आगमका विशेष प्रवचन करनेवाले और स्थिर परिचय करानेवालोंको श्रुतसमुद्देष्टा, तथा आगमके उत्सर्ग या अपवादरूप रहस्यके बतानेवालोंको आम्नायार्थवाचक कहते हैं। ___अब्रह्मसे निवृत्ति, और व्रतोंकी भावना ये ब्रह्मचर्यके विशेष गुण हैं।--इनका स्वरूप पहले कह चुके हैं। अर्थात् अब्रह्मका और उसकी विरतिका तथा प्रत्येक व्रतकी भावनाका भी वर्णन पहले किया जा चुका है, अतएव उसको फिर यहाँ दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। इन दो गुणोंके सिवाय इष्ट-मनोज्ञ या अभिलषित स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द और आभूषण आदिसे आनन्दित न होना, भी ब्रह्मचर्यका एक विशेष गुण है। धर्मके अनन्तर संवरके कारणोंमें अनुप्रेक्षाओंका नामोल्लेख किया है, अतएव धर्मके भेदोंका स्वरूप बताकर क्रमानुसार अब उन अनुप्रेक्षाओंका वर्णन करनेके लिये सूत्र कहते हैं।- सूत्र-अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७॥ भाष्यम्-एता द्वादशानुप्रेक्षाः । तत्र बाह्याभ्यन्तराणि शरीरशय्यासनवस्त्रादीनि द्रव्याणि सर्वसंयोगाश्चानित्या इत्यनुचिन्तयेत् । एवं यस्य चिन्तयतः तेष्वभिष्वङ्गो न भवति, मा भून्मे तद्वियोगजं दुखमित्यनित्यानुप्रेक्षा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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