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सूत्र ६ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भावार्थ-पृथिवीकायिक आदि सत्रह विषयोंकी अपेक्षासे संयमके भी सत्रह भेद हैं। इन विषयोंसे मन वचन कायको उपरत रखना चाहिये । पृथिवीकायिकजीवकी विराधना हो जाय, ऐसा विचार न करना, और न उसके समर्थक वचन बोलना, तथा जिससे विराधना होजाय, ऐसी शरीरकी चेष्टा न करना, अर्थात् हर तरहसे उसकी रक्षा करना, पृथिवीकायिकसंयम है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवोंके विषयमें समझ लेना चाहिये । जो इन्द्रियोंके द्वारा दीख सकता है, उसको प्रेक्ष्य कहते हैं। ऐसे पदार्थक विषयमें देखकर ही ग्रहण करने आदिकी प्रवृत्ति करनी सो प्रेक्ष्यसंयम है। देश कालके अनुकूल विधानके ज्ञाता, शरीरसे ममत्वका परित्याग कर गुप्तियोंके पालनमें प्रवृत्ति करनेवाले साधुके राग द्वेषरूप परिणामोंका न होना, उपेक्ष्यसंयम है । प्रासुक वसतिका आहार आदि बाह्य साधनोंके ग्रहण करनेको अथवा शुद्धयष्टक आदिके पालन करनेको अपहृत्यसंयम कहते हैं। शोधनीय पदार्थको शोधकर ही ग्रहण करनेका नाम प्रमृज्यसंयम है । इसी प्रकार शरीर वचन मन और उपकरणके विषयमें आगमके अनुसार प्रवृत्ति करने और उसके विरुद्ध उनका प्रयोग या उपयोग न करनेको क्रमसे कायसंयम, वाक्संयम, मनःसंयम और उपकरणसंयम कहते हैं ॥ ६॥
___ भाष्यम्-तपो द्विविधम् । तत्परस्ताद्वक्ष्यते । प्रकीर्णकं चेदमनेकविधम् । तद्यथा-यववज्रमध्ये चन्द्रप्रतिमे द्वे, कनकरत्नमुक्तावल्यस्तिस्रः, सिंहविक्रीडिते द्वे, सप्तसप्तमिकाद्याः, प्रतिमाश्चतस्रः-भद्रोत्तरमाचाम्लं वर्धमानं सर्वतोभद्रमित्येवमादि । तथा द्वादश भिक्षुप्रतिमाः मासिकाद्याः आसप्तमासिक्याः सप्त, सप्तरात्रिक्याः तिस्रः, अहोरात्रिकी रात्रिकी चेति ॥७॥
अर्थ-तपके दो भेद हैं-बाह्य और अभ्यन्तर । इनका वर्णन आगे चलकर किया जायगा। प्रकीर्णक तपके अनेक भेद हैं, जो यहाँ दिखाये जाते हैं। यथा-चन्द्रप्रतिम तपके दो भेद हैं-यव मध्य और वज्रमध्य। आवलीके तीन भेद हैं-कनकावली, रत्नावली, और मुक्तावली। सिंहविक्रीडितके दो भेद हैं, लघु और महान् , सप्तसप्तमिका अष्टअष्टमिका नवनवमिका दशदशमिका इस तरह चार । एवं प्रतिमा-तपके चार भेद हैं-भद्रोत्तर, आचाम्ल, वर्धमान और सर्वतोभद्र । भिक्षुप्रतिमा-तपके बारह भेद हैं-यथा--मासिकसे लेकर सप्तमासिकी तक सात भेद और सप्तरात्रिकी के तीन भेद तथा एक अहोरात्रिकी और एक रात्रिकी।
भावार्थ--तपके सामान्यतया दो ही भेद हैं । बाह्य और अभ्यन्तर । इनके उत्तरभेद बारह हैं। उन्हींमें सम्पर्ण तपोंके भेदोंका अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी प्रायश्चित्तादिके द्वारा दोष दूर करनेके लिये अथवा आत्म-शक्तियोंको प्रकट करनेके लिये जो जो विशेष तप किये जाते हैं, उनको प्रकीर्णक कहते हैं । प्रकीर्णक-तप अनेक प्रकारके हैं। उनमें से कुछके भेद यहाँ गिनाये हैं। विशेष जाननेकी इच्छा रखनेवालोंको आगम-ग्रंथ तथा पुन्नाहसंघीय श्रीजिनसेनसरिकृत हरिवंशपुराणका ३४ वाँ सर्ग, श्रीआचारदिनकर, तपोरत्नमहोदधिका तपाक्ली प्रकरण देखकर जानना चाहिये ॥ ७ ॥
...भाष्यम्-बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः॥८॥शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिश्चन्यम् ॥१॥ व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्त्र्यं गुर्वधीनत्वं गुरुनिर्देशस्थायित्वमित्यर्थ च । पश्चाचार्याः
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