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________________ ३८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः निमित्तसे उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है । इसी कारणसे वह जीव इस लोक और परलोकमें अशुभ फलको देनेवाले पाप-कर्मका बंध किया करता है। तथा इस मानके वशीभूत होकर ही उपदिश्यमान-उपदेशके योग्य-वास्तविक कल्याणको प्राप्त नहीं हुआ करता, अभिमानी मनुष्यको यदि हितका उपदेश दिया जाय, तो वह उसको ग्रहण नहीं किया करता । अतएव इन आठों मद-स्थानोंका निग्रह-दमन करना ही मार्दव-धर्म है ॥२॥ .. भाष्यम्--भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । ऋजुभावःऋजुकर्म वार्जवं भावदोष वर्जनमित्यथः। भावदोषयुक्तोहयुपधिनिकृतिसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादार्जवं धर्म इति ॥३॥ - अर्थ--भाव-परिणामोंकी विशुद्धि और विसंवाद-विरोध रहित प्रवृत्ति-झुकाव-यह आर्जवधर्मका लक्षण है । ऋजुभाव या ऋजुकर्मको आर्जव कहते हैं । इसका तात्पर्य भी भाव दोषोंका परित्याग करना ही है । भाव दोषको धारण करनेवाला उपधि (छल-कपट) निकृति-मायाचाररूप अन्तरङ्ग परिग्रहसे युक्त होता है, जिससे कि वह इस लोक और परलोकमें अशुभ फलको देनेवाले पापकर्मका बंध किया करता है। तथा इस प्रकारका जीव उपदिश्यमान हितको प्राप्त नहीं हुआ करता । यदि कोई सद्गुरु उसको कल्याणके मार्गका उपदेश दे, तो वह उसको ग्रहण नहीं किया करता । वह विपरीत रुचिवाला हो जाता है । अतएव जो आर्जव है वही धर्म है । ___भावार्थ-आर्जव शब्द ऋजु शब्दसे भाव या कर्म अर्थमें अण् तद्धित प्रत्यय होकर बनता है । अतएव उसकी निरुक्ति इस प्रकार हुआ करती है, कि ऋजोर्भावः आर्जवम्, अथवा ऋजोः कर्म आर्जवम् । आर्जवका अर्थ सरलता-माया वञ्चना कपट आदिसे रहित भाव होता है। मायाचार अन्तरङ्ग परिणामोंका दोष है। अतएव उससे रहित अन्तरङ्ग भावको ही आर्जवधर्म कहते हैं। भाव दोष-मायाचारसे कर्मबन्ध होता है । अतएव उसके प्रतिकूल आर्जव-धर्मसे संवरकी सिद्धि होती है। . विसंवाद रहित प्रवृत्तिको भी आर्जव कहते हैं। साधर्मियोंसे झगड़ा करना, या कषायवश अयथार्थ तत्त्वका निरूपण करना, जिससे कि सुननेवालेको संशय या विपर्यास होजाय, उसको विसंवाद कहते हैं । इस कृतिका भी वञ्चनासे ही सम्बन्ध है। अतएव संवरके साधक साधु. जन सरलताको सिद्ध करनेके लिये इस विसंवाद दोषका संहार ही किया करते हैं ॥३॥ भाष्यम्-अलोभः शौचलक्षणम् । शुचिभावः शुचिकर्म वा शौचम् । भावविशुद्धिः निष्कल्मषता धर्मसाधनमात्रास्वप्यनभिष्वङ्ग इत्यर्थः । अशुचिर्हि भावकल्मषसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्माच्छौचं धर्मः इति ॥ . अर्थ-अलुब्धता-लोभकषायका परिहार-त्याग अथवा लोभ रहित प्रवृत्ति शौच--धर्मका लक्षण है। व्याकरणके अनुसार शौच शब्दका अर्थ शुचि भाव वा शुचिकर्म होता है । अर्थात् भावों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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