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________________ सूत्र ६ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । की विशुद्धि कल्मषताका अभाव और धर्मके साधनोंमें भी आसक्ति न होना शौच-धर्म है। इस धर्मसे रहित-अशुचि जीव परिणामोंमें कल्मषतासे संयुक्त रहता है । अतएव वह इसलोक और परलोक दोनों ही भवोंमें अशुभ फलके देनेवाले पाप-कर्मका बन्ध किया करता है। तथा उसके परिणाम इतने सदोष हो जाते हैं, कि यदि उसको कोई श्रेयोमार्गका उपदेश दे, तो वह उसको धारण नहीं किया करता । अतएव लोभरूप मलिनताके अभावको ही शौचधर्म कहते हैं। भावार्थ-मलिनताके अभावको शौच या पवित्रता कहते हैं । शारीरिक मलिनताका अभाव गौण है । वास्तवमें शौच-धर्म आत्म परिणामोंकी मलिनता दूर होनेसे ही होता है । और वह मलिनता लोभ कषायरूप है । अतएव उसके दूर होनेपर ही आत्मा शुचि-पवित्र होता है। और संवरको सिद्ध करके श्रेयोमार्गमें अग्रेसर हुआ करता है । क्योंकि पवित्र-अलुब्ध परिणाम हितके ही साधक हुआ करते हैं । ऊपर जो धर्मके साधन बताये हैं-पात्र चीवर-कोपीन रजाहरण आदि उनमें भी आसक्ति न रहना अलुब्धता या शौच-धर्म समझना चाहिये॥ ४ ॥ भाष्यम्-सत्यर्थे भवं वचः सत्यं, सद्भयो वा हितं सत्यम् । तदनृतमपरुषमपिशुनमनसभ्यमचपलमनाविलमविरलमसंभ्रान्तं मधुरमभिजातमसंदिग्धं स्फुटभौदार्ययुक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहारमसीभरमरागद्वेषयुक्तं सूत्रमार्गानुसारप्रवृत्तार्थमय॑मर्थिजनभावग्रहणसमर्थमात्मपरानुग्राहकं निरुपधं देशकालोपपन्नमनवद्यमर्हच्छासनप्रशस्तं यतं मितं याचनं पृच्छनं प्रश्नव्याकरणमिति सत्यं धर्मः ॥५॥ अर्थ-सत्-प्रशस्त पदार्थके विषयमें प्रवृत्त होनेवाले वचनको यद्वा जो सज्जनोंके लिये हितका साधक है, ऐसे वचनको सत्य कहते हैं । जो अनृत-मिथ्या नहीं है, परुषता-रूक्षता या कठोरतासे रहित है, चुगली आदि दोषरूप भी नहीं है, असभ्यताका द्योतक नहीं है, जो चपलता-चञ्चलतापूर्वक प्रयुक्त नहीं हुआ है, एवं जो मलिनता अथवा कलुषताका सूचक नहीं है, जिसका उच्चारण विरलता रहित है, और जो भ्रमरूप नहीं है, इसके सिवाय जो श्रोताओंको कर्णप्रिय मालूम होता है, उत्तम कुलवालोंके योग्य है, अथवा स्पष्ट और विशद है, निश्चयरूप है, तथा जिसका उच्चारण स्फुट-प्रकट है, उदारता या उच्च विचारोंसे युक्त है, जो ग्राम्य दोषसे रहित है-जिसमें ग्राम्य-पदोंका प्रयोग नहीं किया गया है, और जो ग्रामीण विषयका प्रतिपादक भी नहीं है, जो अश्लीलताके दोषसे मुक्त है, एवं जो राग द्वेषके द्वारा न तो प्रयुक्त हुआ है, और न उसका साधक है, तथा न सूचक ही है,आचार्यपरम्पराके द्वारा जो सूत्र-परमागमका मार्ग चला आरहा है, उसके अनुसार ही जिसका प्रतिपाद्य (जो भलीभाँति समझा दिया गया हो।) अर्थ प्रवृत्त हुआ करता है, जो विद्वानोंके समक्ष बहुमूल्य समझा जाता है-विद्वान् अथवा कोई भी सुनने और विचार करनेवाला जिसको कीमती समझता है, अर्थिननोंके भावको ग्रहण करनेमें जो समर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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