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________________ सूत्र है। समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३८७ केवल उसके उदयमें निमित्तमात्र ही हुआ करता है, अथवा हो सकता है । ऐसा विचार करके पर जीवॉपर क्षमा ही धारण करनी चाहिये । इसके सिवाय क्षमाके गुणोंका चिन्तवन करनेसे भी उसकी सिद्धि हुआ करती है। यथा-क्षमा-धारण करनेमें किसी भी प्रकारका श्रम नहीं करना पड़ता, न किसी प्रकारका क्लेश ही होता है, एवं इसके लिये किसी परनिमित्तकी आवश्यकता भी नहीं है, इत्यादि । इसी प्रकार और भी क्षमाके गुणोंका पुनः पुनः विचार यदि किया जाय, तो उससे क्षमा-धर्म सिद्ध हुआ करता है । अतएव संवरके अभिलाषी साधुओंको इन गुणोंका चिन्तवन करके तथा उपर्युक्त उपायोंका अवलंबन लेकर क्षमाकी सिद्धिके लिये अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये ॥१॥ . भाष्यम्-नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको मार्दवलक्षणम् । मृदुभावः मृदुकर्म च मार्दवं मदनिग्रहो मानविघातश्चेत्यर्थः । तत्र मानस्येमान्यष्टौ स्थानानि भवन्ति । तद्यथा-जातिः कुलं रूपमैश्वर्य विज्ञानं श्रुतं लाभो वीर्यमिति । एमिर्जात्यादिभिरष्टाभिर्मदस्थानमत्तः परात्मानन्दाप्रशसाभिरतस्तीव्राहकारोपहतमतिरिहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादेषां मदस्थानानां निग्रहो मार्दवं धर्म इति ॥२॥ ___अर्थ-बड़ोंका विनय करना-उनके समक्ष नम्रता धारण करना और उत्सेकउद्दण्डता-उद्धततासे रहित प्रवृत्ति करना मार्दव-धर्मका लक्षण है । मृदुभाव-कोमलता अथवा मृदुकर्म-नम्र व्यवहारको मार्दव कहते हैं । जिसका तात्पर्य मदका निग्रह अथवा मानकषायका विघात-नाश है। अर्थात् मान कषायके अभाव या त्यागको मार्दव-धर्म कहते हैं। ____ मानकषायके आठ स्थान माने हैं, जोकि इस प्रकार हैं-जाति कुल रूप ऐश्वर्य विज्ञान श्रुत लाभ और वीर्य । अर्थात् इन आठ विषयोंकी अपेक्षा लेकर--इनके विषयमें मान कषाय उत्पन्न हवा करता है। इनमेंसे मातृवंशको जाति और पितृवंशको कुल कहते हैं। शारीरिक सौन्दर्यको रूप और धनधान्यादि विभूतिको ऐश्वर्य कहते हैं । बुद्धिबल अथवा अनुभवरूप ज्ञानको विज्ञान और शास्त्रके आधारसे हुए पदार्थ-ज्ञानको श्रुत कहते हैं। यद्वा विज्ञान शब्दसे मतिज्ञानको और श्रुत शब्दसे श्रुतज्ञानको समझना चाहिये । इच्छित वस्तुकी प्राप्तिको लाभ और उत्साह शक्ति अथवा बल पराक्रमको वीर्य कहते हैं। ये जाति आदि आठों ही विषय मदकी उत्पत्तिके स्थान हैं । इनके निमित्तसे जीव मत्त होकर दूसरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करनेमें अत्यंत रत हो जाया करता है, तथा तीव्र अहंकारके १-व्याकरणके अनुसार मार्दव शब्द दो प्रकारसे सिद्ध होता है, सो ही यहाँ बताया है, क्योंकि मृदु शब्दसे भाव और कर्म अर्थमें तद्धितका अण् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है । मृदोर्भावः मार्दवम् , तथा मृदोः कर्म मार्दवम् । २-दिगम्बर-सम्प्रदायमें आठ भेद इस प्रकार माने हैं--ज्ञान पूज्यता कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर । यथा-"ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः" ॥ २५॥ -स्वामि समंतभद्राचार्य-रत्नकरंडश्रावकाचार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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