SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः स्वरूप पद आदिका स्मरण नहीं रहता । इस प्रकार क्रोधके दोष चिन्तनसे क्षमा-धारण करनी चाहिये । इसके सिवाय बाल-स्वभावका विचार करनेसे भी क्षमाकी सिद्धि होती है । यहाँपर बालसे प्रयोजन मूढ पुरुषके बतानेका है। ऐसे मूढ पुरुषोंके कार्यों-परोक्ष और प्रत्यक्ष आक्रोश-क्रोध तथा ताड़न और मारण एवं धर्मभ्रंशके विषयमें उत्तरोत्तरकी रक्षाके सम्बन्धको लेकर क्षमा--धर्मकी सिद्धिके लिये विचारना चाहिये । यदि कोई मूढ जीव परोक्षमें आक्रोश वचन कहे, तो क्षमा ही धारण करनी चाहिये। सोचना चाहिये, कि मढ पुरुषोंका ऐसा ही स्वभाव होता है । भाग्यसे यह अच्छा ही है, जोकि यह मेरे प्रति परोक्षमें ही ऐसे वचन निकाल रहा है, किन्तु प्रत्यक्षमें कुछ भी आक्रोश नहीं कर रहा है । यह उल्टा मेरे लिये लाभ ही है। कदाचित् कोई मुढ प्रत्यक्षमें भी आक्रोश करने लगे, तो भी क्षमा धारण करनी चाहिये । क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति मूढ पुरुषोंमें हुआ ही करती है । सोचना चाहिये, कि यह उल्टा अच्छा ही हुआ है, जो केवल प्रत्यक्षमें आक्रोश ही यह कर रहा है, मझे पीट नहीं रहा है। क्योंकि मुढ पुरुषों में ऐसा भी देखा जाता है-वे पीटते भी हैं। मुझे पीट नहीं रहा है, यह मेरे लिये लाभ ही है। यदि कोई मूढ पुरुष पीटने भी लगे, तो भी साधुओंको क्षमा ही धारण करनी चाहिये । सोचना चाहिये, कि ऐसा मूढ पुरुषोंका स्वभाव ही होता है, कि वे पीटने मी लगते हैं । सौभाग्यसे यह ठीक ही हुआ है, जो यह मुझे पीट ही रहा है, किन्तु प्राणोंसे वियुक्त नहीं कर रहा है। क्योंकि मढ पुरुषोंका तो ऐसा भी स्वभाव हुआ करता है, कि वे प्राणोंका भी अपहरण कर लेते हैं । सो यह प्राणोंका व्यपरोपण नहीं करता यह लाभ ही है। यदि कदाचित् कोई मूढ प्राणोंसे भी वियुक्त करने लगे, तो भी विचार कर क्षमा ही धारण करनी चाहिये । उस अवस्थामें विचारना चाहिये, कि यह सौभाग्यसे मेरे प्राणोंका वियोगमात्र ही कर रहा है, धर्मसे मुझे भ्रष्ट नहीं करता, यह अच्छा ही करता है । अतएव इसपर क्रोध करनेकी क्या आवश्यकता है ? किन्तु क्षमा ही धारण करनी चाहिये। कोई कोई मुढ पुरुष तो धमसे भी भ्रष्ट करदिया करते हैं, सो यह नहीं कर रहा है, यह हमारे लिये उल्टा महान् लाभ ही है। ____ इस प्रकार मूढ पुरुषोंके परोक्ष प्रत्यक्ष आक्रोश वचन और ताड़न मारण तथा धर्मभ्रं. शके विषयमें क्रमसे उत्तरोत्तर विचार करनेपर क्षमा-धर्मकी सिद्धि हुआ करती है। इसके सिवाय अपने पूर्वकृत-कर्मके फलका यह आगमन-उदय-काल है, ऐसा विचार करनेसे भी क्षमाकी सिद्धि होती है । जब क्षमाके विरुद्ध क्रोधोत्पत्तिके निमित्त उपस्थित हों, उस समय ऐसा विचार करनेसे भी क्षमा-धर्म स्थिर रहा करता है, कि मैंने जो पहले कर्मोंका बन्ध किया है, उनके फलको भोगनेका यह समय है-अब वे फल देनेके लिये आकर उपस्थित-उद्यत हुए हैं। अतएव यह तो मेरे कर्मोंका ही दोष है, जो यह मूढ़ मेरी निन्दा आदि कर रहा है। क्योंकि निन्दा होनेमें मुख्य कारण तो मेरे कर्मोंका उदय ही है, यह मूढ़ या कोई भी पर पुरुष तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy