SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ६।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३८६ त्यपि बाले क्षमितव्यम् । एवं स्वभावा हि बाला भवन्ति । दिष्टया च मां ताडयति न प्राणैर्वियोजयतीति । एतदपि विद्यते बालेष्विति । प्राणैर्वियोजयत्यपि बाले क्षमितव्यम् । दिष्टया च मां प्राणैर्वियोजयति न धर्माद भ्रंशयतीति क्षमितव्यम् । एतदपि विद्यते बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः । किं चान्यत्-स्वकृतकर्मफलाभ्यागमाञ्च । स्वकृतकर्मफलाभ्यागमोऽयं मम, निमित्तमात्रं पर इति क्षमितव्यम् । किं चान्यत्-क्षमागुणांश्चानायासा. दीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्मः ॥१॥ __ अर्थ-उपर्युक्त संवरका कारणभूत धर्म दश प्रकारका है-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकि. ञ्चन्य, और उत्तम ब्रह्मचर्य । पहले व्रतिकोंके भेद बताते हुए दो भेद बता चुके हैं-सागार और अनगार । उनमेंसे जो अनगार-गृहरहित साधु–पूर्ण संयत हैं, उनके ही ये दश प्रकारके धर्म उत्तम गुणसे युक्त और प्रकर्षतया-मुख्यतया पाये जाते हैं । दश धमाका स्वरूप क्या है, सो बतानेके लिये क्रमसे उनका वर्णन करनेकी इच्छासे सबसे पहले उनमेंसे क्षमा-धर्मका स्वरूप बताते हैं:__क्षमा तितिक्षा सहिष्णुता और क्रोधका निग्रह ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । परन्तु यह क्षमा किस तरहसे धारण करनी चाहिये, तो उसकी रीति यह है, कि एक तो क्रोध उत्पन्न होनेके जो निमित्त कारण हैं, उनके सद्भावका और अभावका अपने चिन्तवन करना चाहिये । क्योंकि उन कारणोंके अपनेमें अस्तित्व या नास्तित्वका बोध हो जानेसे इस धर्मकी सिद्धिहो सकती है । यदि कोई दूसरा व्यक्ति ऐसे कारणों का प्रयोग करे, कि जिनके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न हो सकता है, तो अपनेमें उन बातोंका विचार करना चाहिये, कि ये बातें मुझमें हैं अथवा नहीं। विचार करते हुए यदि सद्भाव पाया जाय, तो भी क्षमा-धारण करनी चाहिये, और यदि अभाव प्रतीत हो, तो भी क्षमा धारण ही करनी चाहिये । सद्भावके पक्षमें तोक्षमा धारण करनेके लिये सोचना चाहिये, कि जिनदोषोंका यह वर्णन कर रहा है, वे सब मुझमें हैं ही, इसमें यह झूठ क्या बोलता है ? कुछ भी नहीं । अतएव इसपर क्रोध करना व्यर्थ है, मुझे क्षमा-धारण ही करनी चाहिये । अभावके पक्षमें भी क्षमा-धर्मको ही स्वीकार करना चाहिये । सोचना चाहिये, कि यह जिन दोषोंको अज्ञानताके कारण मुझमें बता रहा है, वे दोष मुझमें हैं ही नहीं । अतएव क्रोध करनेकी क्या आवश्यकता है ? इसके अज्ञानपर क्षमा धारण करना ही उचित है। इस प्रकार अपनेमें दसरोंके द्वारा प्रयुक्त दोषोंके भाव और अभावका चिन्तवन करनेसे क्षमा-धर्म धारण किया जाता है। इसके सिवाय क्षमाके विपरीत क्रोधकषायके दोषोंका विचार करनेसे भी क्षमाकी सिद्धि होती है। विचारना चाहिये, कि जो मनुष्य क्रोधी हुआ करता है, उसमें विद्वेष आसादन स्मृतिभ्रंश और व्रतलोप आदि अनेक दोष उत्पन्न हो जाया करते हैं। उससे हरएक मनुष्य द्वेष करने लगता है, अवज्ञा या अनादर किया करता है । तथा उसकी स्मृति-शक्ति नष्ट हो जाती है, और इसी लिये कदाचित् वह उस कषायके वश होकर व्रत भंग भी कर बैठता है। क्योंकि क्रोधी जीवको विवेक नहीं रहता।-अपने ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy