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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः अन्न- खाद्य सामग्री, पान - पेय पदार्थ, रजोहरण - जीव जन्तुओं को झाड़कर दूर करने के लिये जो ग्रहण की जाती है, ऐसी एकै प्रकारकी झाडू, पात्र - भिक्षाधारण करने आदिके योग्य वर्तन, चीवर - घोती डुपट्टा आदि वस्त्रे इसी प्रकार और भी जो धर्मके साधन हैं, उनको धारण करनेवाले साधुका उनके धारण करनेमें उद्गम उत्पादन और एषणा दोषोंके त्यागका नाम एषणासमिति है' । आगममें जो उत्पादनादिक दोष बताये हैं, उनको टालकर धर्मके साधनों को धारण करने और भोजन पानमें प्रवृत्ति करनेको एषणासमिति कहते हैं । ३८४ जब आवश्यक कार्य करना हो, तब उसकी सिद्धिके लिये जो चीज उठानी या रखनी हो, उसको अच्छी तरह देख शोध कर उठाने धरनेको आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं । अर्थात् आवश्यक कार्यके लिये उपर्युक्त रजोहरण पात्र चीवर आदिको अथवा काष्ठासन आदिकी फली - लकड़ी के तख्ते आदिको भले प्रकार देखकर और शोधकर उठाने या रखनेका नाम आदाननिक्षेपणसमिति है । जहाँपर स्थावर --- - पृथिवीकायिक आदि पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय जीव और द्वीन्द्रियादिक स या जङ्गम जीव नहीं पाये जाते, ऐसे शुद्ध स्थण्डिल - प्रासुक स्थानपर अच्छीतरह देख कर और उस स्थानको शोधकर मल मूत्रका परित्याग करनेको उत्सर्गसमिति कहते हैं । इस प्रकार संवर के कारणोंमेंसे पाँच समितियोंका स्वरूप कहा । अब उसके बाद क्रमा नुसार दश प्रकारके धर्मका स्वरूप बताने के लिये सूत्र कहते हैं | सूत्र - उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौच सत्य संयमतपस्त्यागाकिञ्च न्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥६॥ भाष्यम्-इत्येष दशविधोऽनगारधर्मः उत्तमगुणप्रकर्षयुक्तो भवति । तत्र क्षमा तितिक्षा सहित्वं क्रोधनिग्रह इत्यनर्थान्तरम्। तत्कथं क्षमितव्यमिति चेदुच्यते । क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भावा भावचिन्तनात्, परैः प्रयुक्तस्य क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भावचिन्तनाद्भावचिन्तनाद्वा क्षमितव्यम्। भावचिन्तनात् तावद्विद्यन्ते मय्येते दोषाः किमत्रासौ मिथ्या ब्रवीति क्षमितव्यम् । अभावचिन्तनादपि क्षमितव्यम्, नैते विद्यन्ते मयि दोषाः यानज्ञानादसौ ब्रवीति क्षमितव्यम् । किं चान्यत् — क्रोधदोषचिन्तनाञ्च क्षमितव्यम् । क्रुद्धस्य हि विद्वेषासादनस्मृतिभ्रंशव्रतलो पादयो दोषा भवन्तीति । किं चान्यत् — बालस्वभावचिन्तनाच्च परोक्षप्रत्यक्षाक्रोशताडनमारणधर्मभ्रंशानामुत्तरोत्तररक्षार्थम् । बाल इति मूढमाह । परोक्षमाक्रोशति वाले क्षमितव्यमेव । एवंस्वभावा हि बाला भवन्ति दिष्टया च मां परोक्षमाक्रोशति न प्रत्यक्षमिति लाभ एव मन्तव्य इति । प्रत्यक्षमप्याक्रोशति वाले क्षमितव्यम् । विद्यत एवैतद्वालेषु । दिष्टया च मां प्रत्यक्षमाक्रोशति न ताडयति । एतदप्यस्ति बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः । ताडय १ – श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में यह प्रायः ऊनका ही होता है, दिगम्बर-सम्प्रदाय में उनको अशुद्ध मानतें हैं, अतएव मयूरपिच्छ की पिच्छी ही धारण की जाती है । २- दिगम्बर साधु वस्त्र और पात्र आदि परिग्रह नहीं रखते । ३-इसके लिये देखो श्रीवष्टकेरआचार्यकृत मूलाचार और पं० प्रवर आशाधरकृत अनगारधर्मामृत आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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