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________________ ३८३ सूत्र ४-५ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ये गुप्तियाँ संवरका मुख्य उपाय हैं । अतएव मुमुक्षुओंको इनका भले प्रकार पालन करना चाहिये । किंतु जो इनके पालन करनेमें असक्त हैं, उन्हें समितियोंका पालन अवश्य करना चाहिये । अतएव गुप्तियोंके अनन्तर समितियोंको बताने के लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र-ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाःसमितयः॥५॥ ___ भाष्यम्-सम्यगीर्या, सम्यम्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेपौ, सम्यगुत्सर्ग इति पञ्चसमितयः। तत्रावश्यकायैव संयमार्थ सर्वतो युगमात्रनिरीक्षणायुक्तस्य शनैयस्तपदा गतिरीय समितिः । हितमितासंदिग्धानवद्यार्थनियतभाषण भाषासमितिः । अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्मोत्पादनैषणादोषवर्जनमेषणासमितिः । रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठफलकादीनां चावश्यकाथ निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ आदाननिक्षेपणासमितिः । स्थण्डिले स्थावरजङ्गमजन्तुवर्जिते निरीक्ष्य प्रमृज्य च मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिरिति ॥ ' अर्थ-समिति पाँच प्रकारकी हैं । - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग । पूर्वसूत्रमें जो सम्यक् शब्द दिया है, उसकी अनुवृत्ति इस सूत्रमें भी आती है । उसका सम्बन्ध यहाँ पर प्रत्येक शब्दके साथ करना चाहिये । जैसे कि सम्यगीर्या सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप, और सम्यगुत्सर्ग । इन पाँचोंका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार है:-- आवश्यक कार्य के लिये ही संयमको सिद्ध करनेके लिये सब तरफ चार हाथ भूमिको देख कर धीरे धीरे पैर रखकर चलनेवाले साधुकी गतिको ईर्यासमिति कहते हैं। भावार्थ-मुनिजन निरर्थक गमन नहीं किया करते, वे या तो आवश्यक कार्यके लिये गमन करते हैं, अथवा संयम विशेषकी सिद्धिके लिये विहार किया करते हैं। सो भी सब तरफ देखकर और सामनकी भूमिको अपने शरीर प्रमाण देखकर धीरे धीरे पैर रखते हुए इस तरहसे सावधानीके साथ चलते हैं, कि जिससे किसी भी जीवकी विराधना न हो जाय, इस अप्रमत्त-गमन करनेको ही ईयर्यासमिति कहते हैं। हित मित असंदिग्ध और अनवद्य अर्थके प्रतिपादन करनेमें जो नियत है, ऐसे वचनके बोलनेको भाषा समिति कहते हैं। मोक्ष पुरुषार्थका साधन करनेवाले संयमी साधु ऐसे • वचन बोलनेको समिति-समीचीन-मोक्षकी साधक प्रवृत्ति नहीं समझते, जोकि आत्मकल्याणके लक्ष्यको लेकर प्रवृत्त नहीं हुए हैं, या जो निष्प्रयोजन अपरिमितरूपसे बोले गये हों, अथवा जो श्रोताको निश्चय करानेवाले न हों, या संदेहजनक अथवा संशयपूर्वक बोले गये हों, यद्वा जो पापरूप हैं:--पाप कार्यके समर्थक हैं। अतएव इन चारों बातोंका लक्ष्य रखकर ही वे भाषाका प्रयोग करते हैं, और इसी लिये उनकी ऐसी अप्रमत्त-भाषाको भाषासमिति कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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