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________________ ३८२ रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः भावार्थ-तप दो कार्योंका कारण है । अतएव उसका केवल संवरके कारणोंसे पृथकू उल्लेख किया है। भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता गुप्त्यादिभिरभ्युपायैः संवरो भवतीति । तत्र के गुप्त्यादय इति ? अत्रोच्यतेः अर्थ-आपने ऊपर कहा है, कि गुप्ति आदि उपायोंसे संवरकी सिद्धि हुआ करती है। परन्तु यह नहीं मालूम हुआ, कि वे गुप्ति आदि क्या हैं? उनका स्वरूप या लक्षण क्या है ? अतएव उसको बतानेके लिये ही सूत्र कहते हैं । उनमें से सबसे पहले गुप्तिका लक्षण बताते हैं: सूत्र-सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ ___ भाष्यम्- सम्यगिति विधानतो ज्ञात्वाभ्युपेत्य सम्यग्दर्शनपूर्वकं त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो गुप्तिः ।-कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिमनोगुप्तिरिति । तत्र शयनासनादाननिक्षेपस्थानचंक्रमणेषु कायचेष्टानियमः कायगुप्तिः । याचनपृच्छनपृष्टव्याकरणेषु वाइनियमो मौनमेव वा वाग्गुनिः। सावद्यसंकल्पनिरोधः कुशलसंकल्पः कुशलाकुशलसंकल्पनिरोध एव वा मनोगुप्तिरिति ॥ अर्थ-ऊपर योगका स्वरूप बता चुके हैं। उसके तीन भेद हैं-काययोग वचनयोग और मनोयोग । इन तीनों ही प्रकारके योगका भलेप्रकार-समीचीनतया निग्रह-निरोध होनेको गुप्ति कहते हैं। सूत्रमें सम्यक् शब्दका प्रयोग जो किया है, उसका तात्पर्य यह है, कि विधिपूर्वक, जानकरके, स्वीकार करके, और सम्यग्दर्शनपूर्वक । इस प्रकारसे जो योगोंका निरोध किया जाता है, तो वह गुप्ति है अन्यथा नहीं । विषयकी अपेक्षासे गुप्तिके तीन भेद हैं-कायगुप्ति, वाग्गुप्ति, और मनोगुप्ति। सोनमें, बैठनेमें, ग्रहण करनेमें, रखनेमें, खड़े होनेमें, या घूमने फिरनेमें जो शरीरकी चेष्टा हुआ करती है, उसके निरोध करनेको कायगुप्ति कहते हैं । याचना करने-माँगने या पूछनेमें अथवा पछे हुएका व्याख्यान करनेमें यद्वा निरुक्ति आदिके द्वारा उसका स्पष्टीकरण करनेमें जो वचनका प्रयोग होता है, उसका निरोध करना वागुप्ति है । अथवा सर्वथा वचन निकालनेका त्याग कर मौन-धारण करनेको वाग्गुप्ति कहते हैं। मनमें जितने सावध संकल्प हुआ करते हैं, उनके त्याग करनेको अथवा शुभ संकल्पोंके धारण करनेको यद्वा कुशल और अकुशल-दोनों ही तरहके-संकल्पमात्रके निरोध करनेको मनोगुप्ति कहते हैं। भावार्थ-मन वचन और कायके द्वारा होनेवाले योगके निरोधको गप्ति कहते हैं। परन्तु यह निरोध अविधि अज्ञान अस्वीकार और मिथ्यादर्शन पूर्वक हो, तो वह गुप्ति नहीं कहा जा सकता है। इस भावको दिखानेके लिये ही सत्रमें सम्यक् शब्दका प्रयोग किया है। अन्यथा आत्मघात आदिको भी गुप्ति कहा जा सकता था । अथवा बालतप करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके मौन-धारणको भी त गुप्ति कह सकते थे । इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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