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________________ नवमोऽध्यायः। भाष्यम्--उक्तो बन्धः। संवरं वक्ष्यामः। __ अर्थ--ऊपर आठवें अध्यायमें बन्धतत्त्वका वर्णन हो चका । उसके अनन्तर संवरका वर्णन होना चाहिये । अतएव क्रमानुसार अब उसीका वर्णन करते हैं। उसमें सबसे पहले संवरका लक्षण बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-आस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ भाष्यम्--यथोक्तस्य काययोगादेर्द्विचत्वारिंशद्विधस्य निरोधः संवरः। अर्थ--पहले काययोग आदि आस्रवके ब्यालीस भेद गिनाये हैं । उनके निरोधको संवर कहते हैं। भावार्थ--कर्मोके आनेके मार्गको आस्रव कहते हैं । जिन जिन कारणोंसे कर्म आते हैं, वे पहले बताये जा चुके हैं। आस्रवके मूल ४२ मेदोंको भी छटे अध्याय दिखा चुके हैं । यहाँपर संवरका प्रकरण है। आस्रवका ठीक प्रतिपक्षी संवर होता है, अतएव जिनसे कर्म आते हैं, उनसे प्रतिकूल कार्य करनेपर संवरकी सिद्धि होती है, और इसी लिये किन किन कारणोंसे कर्मोका आना रुकता है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:-- सूत्र–स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥ २ ॥ भाष्यम्-स एष संवरः एभिर्गुप्त्यादिभिरभ्युपायैर्भवति । किं चान्यत् अर्थ-उपर्युक्त आस्रवके निरोधरूप संवरकी सिद्धि इन कारणोंसे हुआ करती है-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, और चारित्र । भावार्थ--गुप्ति आदिके द्वारा कर्मोका आना रुकता है। गुप्ति आदिका स्वरूप क्या है, सो आगे चलकर इसी अध्यायमें क्रमसे बतायेंगे । गुप्ति आदिके सिवाय और भी जो संवरकी सिद्धिका कारण है, उसको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-तपसा निर्जरा च ॥३॥ भाष्यम्--तपो द्वादशविधं वक्ष्यते । तेन संवरो भवति निर्जरा च॥ __ अर्थ--तपके बारह भेद आगे चलकर इसी अध्यायके सूत्र १९-२० के द्वारा बतायेंगे । इस तपके द्वारा भी संवर होता है, किंतु तपमें यह विशेषता है, कि इससे संवर भी होता है और निर्जरा भी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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