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________________ १८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽध्यायः फूजा आदि करनेसे जो निष्पन्न होता है, ऐसा सम्यक्त्ववेदनीयकर्म, तथा नोकषायके भेदोंमेंसे तीन हास्यवेदनीय, रतिवेदनीय, और पुरुषवेदनीय, एवं शुभ आयु-मनुष्यआयु और देवायु, और शुभनाम--गतिनामकर्म आदिमेंसे जो शुभरूप हों, तथा शुभगोत्र अर्थात् उच्चैर्गोत्र कर्म । ये आठ कर्म पुण्यरूप हैं । इनके सिवाय पूर्वोक्त कर्मों से जो बाकी रहे, वे सब पाप-कर्म हैं। भावार्थ-ऊपर जो आठ कर्म बताये हैं, वे प्रकृतिबंधके भेद हैं। तथा वे मूलभेद हैं। उनके उत्तरभेदोंमेंसे कुछ कर्म तो ऐसे हैं, जोकि पुण्य हैं, उनका फल जीवोंको इष्ट है। और कुछ इसके प्रतिकूल हैं । जो पुण्यरूप हैं उनके भी आठ भेद हैं। जैसा कि इस सूत्रमें गिनाया गया है। इनमें भी शुभ आयु और शुभ नाम ये दो प्रकृति तो पिंडरूप हैं-अनेक प्रकृतियोंके समूहरूप हैं, और बाकी छह अपिंडरूप हैं-एक एक भेदरूप ही हैं। शुभ आयुसे देवायु और मनुष्यायुका ही ग्रहण है। किन्तु शुभ नाम शब्दसे गति जाति शरीरदिकमेंसे जो जो शुभरूप हैं, उन सभीका आगमके अनुसार ग्रहण करलेना चाहिये। इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका जिसमें बंध-तत्त्वका वर्णन किया गया है, ऐसा आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। १-सम्यक्त्वप्रकृति दर्शनमोहनीयका एक भेद है । इसका बंध नहीं होता, किन्तु सम्यग्दर्शन होनेपर मिथ्यात्वप्रकृतिके ही तीन भाग हो जाते हैं । अतः ऐसा कहा गया है । २-दिगम्बर-सम्प्रदायमें तिर्यगायुको भी पुण्य ही माना है, परन्तु तिर्यग्गतिको पाप कहा है, क्योंकि किसी भी तिर्यचको मरना इष्ट नहीं है । परन्तु किसी जीवको तिर्यंच होना भी पसंद नहीं है ।-३-यह पिंडरूप एक भेद है । जो जो नामकर्मकी शुभप्रकृति हैं, उन सबका इस एक ही भेदमें अन्तर्भाव हो जाता है। ४-दिगम्बर-सम्प्रदायमें धातिकर्मका कोई भी भेद पुण्य नहीं माना है, अतएव वे ऐसा सूत्रपाठ करते हैं-" सद्वेद्यशुभायुनीमगोत्राणि पुण्यम् ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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