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सूत्र २५-२६ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
३७९ तरतमताके अनुसार ही प्रदेशबंध होता है । योग रहित जीवोंके वह नहीं होता । तथा ये बंधनेवाले सभी पुद्गल सूक्ष्म हुआ करते हैं, न कि बादर । इसी प्रकार वे एक ही क्षेत्रमें अवगाह करनेवाले होते हैं, न कि क्षेत्रान्तरमें भी अवगाह करनेवाले । तथा स्थितिशील हआ करते हैं, न कि गतिमान् । एवं सभी कर्मप्रकृतियोंके योग्य पद्धल जीवके सम्पूर्ण प्रदेशोंपर बँधते हैं। ऐसा नहीं है, कि जीवके कुछ प्रदेशोंपर ही बंध होता हो और कुछ विना बंधके भी रहते हों, और न ऐसा ही है, कि किसी प्रदेशपर किसी प्रकृतिका बंध हो, और दूसरे प्रदेशोंपर दसरी दूसरी प्रकृतियोंके योग्य पुद्गलोंका बंध हो। किन्तु सभी प्रदेशोंपर सभी प्रकृतियोंके योग्य पुद्गलों का बंध हुआ करता है। इस हिसाबसे यदि देखा जाय, तो आत्माका एक एक प्रदेश अनन्त कर्मप्रदेशोंके द्वारा बद्ध है । कर्मग्रहणके योग्य जो पुद्गल बँधते हैं, उनकी संख्या अनंतानंत है। संख्येय असंख्येय और अनंत प्रदेश बंधको प्राप्त नहीं हुआ करते। क्योंकि उनमें ग्रहणकी योग्यता नहीं है। इस प्रकारसे जो कर्मग्रहणके योग्य पुद्गल प्रदेशोंका जीव-प्रदेशोंके साथ बंध होता है, इसीको प्रदेशबंध कहते हैं।
भावार्थ-प्रतिक्षण बँधनेवाले अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओंके सम्बन्धविशेषको प्रदेशबंध कहते हैं। इसका विशेष स्वरूप और इसके कारण आदि ऊपर लिखे अनुसार हैं । इसप्रकार बंधके चौथे भेदका स्वरूप बताया ।
भाष्यम्-सर्व चैतदष्टविधं कर्म पुण्यं पापं च ॥ तत्र
अर्थ-ऊपर सम्पूर्ण कर्मोंके आठ भेद बताये हैं । इनके सामान्यतया दो भेद हैंएक पुण्य और दूसरा पाप । अर्थात् आठ प्रकार के कर्मोंमेंसे कोई पुण्यरूप हैं, और कोई पापरूप हैं। पुण्यरूप कौन कौन हैं ? और पापरूप कौन कौन हैं ? इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं।सूत्र-सद्धेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्६
भाष्यम्-सद्वेद्यं भूतव्रत्यनुकम्पादिहेतुकं, सम्यक्त्ववेदनीयम् केवलिश्रुतादीनां वर्णवा. दादिहेतुकम्, हास्यवेदनीय, रतिवेदनीयं, पुरुषवेदनीयं, शुभमायुष्कं मानुषं देवं च, शुभनाम गतिनामादीनां, शुभं गोत्रमुच्चैर्गोत्रमित्यर्थः । इत्येतदष्टविधं कर्म पुण्यम्, अतोऽन्यत्पापम् ॥
___इति तत्त्वार्थागमेऽहत्प्रवचनसंग्रहेऽष्टमोऽध्यायः समाप्तः।।
अर्थः--भूत-प्राणिमात्रपर अनुकम्पा करनेसे और व्रती पुरुषोंपर विशेषतया अनुकम्पा करनेसे तथा इनके सिवाय और भी जो दान आदि कारण बताये हैं, उन कारणोंके द्वारा जिसका बंध होता है, ऐसा सद्वेद्यकर्म, और केवलीभगवान् तथा श्रुत आदिकी स्तुति भक्ति प्रशंसा
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