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________________ ३७८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ अष्टमोऽध्यायः भावार्थ-निर्जरा शब्दका अर्थ बँधे हुए कर्मोंका क्रमसे आत्मासे सम्बन्ध छूट जाना है। यह दो प्रकारसे होती है। एक तो यथाकाल और दूसरी प्रयोगपूर्वक । कर्म अपना जब फल दे चुकते हैं, उसके अनन्तर ही वे आत्मासे सम्बन्ध छोड देते हैं, यह यथाकाल निर्जरा है। इस तरहकी निर्जरा सभी संसारी जीवोंके और सदाकाल हुआ करती है, क्योंकि बँधे हुए कर्म अपने अपने समयपर फल देकर निर्जीर्ण होते ही रहते हैं । अतएव इसको निर्जरा-तत्त्वमें नहीं समझना चाहिये । दूसरी तरहकी निर्जरा तप आदिके प्रयोग द्वारा हुआ करती है । यह निर्जरा-तत्त्व है, और इसी लिये मोक्षका कारण है। इस प्रकार दोनोंके हेतुमें और फलों अन्तर है, फिर भी वे दोनों ही एक निर्जरा शब्दके द्वारा ही कही जाती हैं। अतएव च शब्दके द्वारा हेत्वन्तरका बोध कराया है। भाष्यम्-उक्तोऽनुभावबन्धः । प्रदेशबन्धं वक्ष्यामः । अर्थ-इस प्रकार अनुभागबन्धका वर्णन पूर्ण हुआ। अब क्रमानुसार चौथे प्रदेशबन्धका वर्णन होना चाहिये । अतएव उसका ही वर्णन करते हैं।--- सूत्र-नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २५ ॥ भाष्यम्-नामप्रत्ययाः पुद्गला बध्यन्ते । नाम प्रत्यय एषां ते इमे नामप्रत्ययाः। नामनिमित्ता नामहेतुका नामकारणा इत्यर्थः । सर्वतस्तिर्यगूर्ध्वमधश्च बध्यन्ते । योगविशेषात कायवाङ्मनः कर्मयोगविशेषाञ्च बध्यन्ते । सूक्ष्मा बध्यन्ते न बादराः । एकक्षेत्रावगाढा बध्यन्ते न क्षेत्रान्तरावगाढाः । स्थिताश्च बध्यन्ते न गतिसमापन्नाः । सर्वात्मप्रदेशेषु सर्वप्रकृतिपुद्गलाः सर्वात्मप्रदेशेषु बध्यन्ते । एकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तैः कर्मप्रदेशैर्बद्धः । अनन्तानन्तप्रदेशाः कर्मग्रहणयोग्याः पुद्गला बध्यन्ते न सङ्ख्येयासख्येयानन्तप्रदेशाः । कुतोऽग्रहणयोग्यत्वात् प्रदेशानामिति एष प्रदेशबन्धो भवति ॥ अर्थ-जो पुद्गल कर्मरूपसे आत्माके साथ बंधको प्राप्त होते हैं, उन्हींकी अवस्था विशेषको प्रदेशबंध कहते हैं । अतएव इस सूत्रमें उसी अवस्थाविशेषको दिखाते हैं।बंधको प्राप्त होनेवाले पुद्गल नामप्रत्यय कहे जाते हैं। नाम ही है प्रत्यय-कारण निनका उनको कहते हैं नामप्रत्यय । अतएव नामप्रत्यय नामनिमित्त नामहेतुक और नामकारण ये सभी शब्द समानार्थके बोधक हैं। नाम शब्दसे सम्पर्ण कर्मप्रकृतियोंका ग्रहण होता है। क्योंकि प्रदेशबंधमें कर्म कारण हैं। कर्म रहित जीवके उसका बंध नहीं हुआ करता । तथा ये पुद्गल तिर्यक् ऊर्ध्व और अधः सभी तरफसे बँधते हैं, न कि किसी भी एक ही नियत दिशासे । और बंधकाकारण योगविशेष है । योगका लक्षण पहले बता चके हैं, कि मन वचन और कायके निमित्तसे जो कर्म-आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है, उसको योग कहते हैं । इसी योगकी विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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