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________________ सूत्र २१-२२-२३-२४।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् | ३७७ ही कर्मो का संक्रमण कर दिया करता है । इसका कारण कर्म ही है, और वह तभीतक होता है, जबतक कि पूर्व में उसकी शक्तिका भोग नहीं किया गया हो । यह संक्रम मूल प्रकृतियोंसे अभिन्न सम्पूर्ण उत्तरप्रकृतियोंमें हुआ करता है, परन्तु मलप्रकृतियोंमें नहीं होता । क्योंकि बन्धविपाकके लिये जिस निमित्तकी आवश्यकता है, मूलप्रकृतियाँ उससे भिन्न जातिवाली हुआ करती हैं । उत्तरप्रकृतियों में भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका संक्रम नहीं होता । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीयका भी संक्रम नहीं होता, तथा आयुष्ककर्ममें भी परस्पर संक्रम नहीं होता। क्योंकि जात्यन्तरसे सम्बन्ध रखनेवाले विपाकके लिये जिस निमित्तकी आवश्यकता है, ये उस जाति नहीं हैं । ये उससे भिन्न जाति के हैं । अपवर्तन सभी प्रकृतियोंका हो सकता है । इस बातको आयुष्ककर्म के द्वारा उसके सम्बन्धको लेकर पहले बता चुके हैं । किस कर्मका विपाक किस रूपमें होता है, इस बात को बतानेके लिये सूत्र कहते 1 सूत्र - स यथानाम ॥ २३ ॥ भाष्यम् - सोऽनुभावो गतिनामादीनां यथानाम विपच्यते । अर्थ —गतिनामादि कर्मोंका अनुभाव उन प्रकृतियोंके नामके अनुसार ही हुआ करता है । उक्त सम्पूर्ण कर्मोंकी जैसी संज्ञा है, और उसके अनुसार जैसा उनका अर्थ होता है, उसी के अनुसार उन कर्मोंका विपाक भी होता है । नामके अनुरूप विपाक होजानेके अनन्तर उन कमका क्या होता है ? इसका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं -- सूत्र - ततश्च निर्जरा ॥ २४ ॥ भाष्यम् - ततश्चानुभावात्कर्मनिर्जरा भवतीति । निर्जरा क्षयो वेदनेत्येकार्थः । अत्र च शब्द हेत्वन्तरमपेक्षते - तपसा निर्जरा चेति वक्ष्यते ॥ - अर्थ — जब उपर्युक्त कर्मोंका विपाक हो चुकता है- जब वे अपना फल दे लेते हैं, उसके अनन्तर ही उनकी निर्जरा हो जाती है - आत्मासे संबंध छोड़ कर वे निर्जीर्ण हो जाते हैं - झड़ जाते हैं। निर्जरा क्षय और वेदना ये शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं, इस सूत्र में च शब्द जो दिया है, वह निर्जराके दूसरे भी हेतुका बोध कराने के लिये है । अर्थात् विपाकपूर्वक भी निर्जरा होती है, और दूसरी तरहसे अथवा अन्य कारणसे भी होती है । क्योंकि आगे चलकर अध्याय ९ सूत्र ३ के द्वारा यह कहेगें कि " तपसा निर्जरा च " अर्थात् तपसे निर्जरा भी होती है । १ --- अध्याय २ सूत्र ५२ । ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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