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रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम
[ अष्टमोऽध्यायः
सूत्र-शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥ २१ ॥ भाष्यम्-वेदनीयनामगोत्रप्रकृतिभ्यः शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयायुष्कान्तरायप्रकृतीनामपरा स्थितिरन्तर्मुहूर्त भवति ॥
अर्थ-शेष शब्दसे उपर जिन प्रकृतियोंकी जवन्य स्थिति बता चुके हैं, उनसे बाकी प्रकृतियोंकी ऐसा अर्थ समझना चाहिये । अतएव वेदनीय नाम और गोत्रको छोड़कर बाकी ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय आयुष्क और अन्तराय इन कर्मोंका जघन्य स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्तका हुआ करता है । अर्थात् इन कर्मोंका स्थितिबंध एक समयमें कमसे कम होगा, तो अन्तमुहूर्तका होगा, इससे कम इनका स्थितिबंध नहीं हुआ करता ।
भावार्थ----यह बंधका प्रकरण है, और कर्मोका बंध प्रतिक्षण हुआ करता है । एक आयकर्मको छोड़कर शेष सातों कर्म संसारी जीवके प्रतिसमय बंधको प्राप्त हुआ करते हैं। अतएव स्थितिबंधके जघन्य उत्कृष्ट प्रमाण बतानेका अभिप्राय भी यही समझना चाहिये, कि इस एक क्षणके बंधे हुए कर्ममें कमसे कम इतने काल तक या ज्यादःसे ज्यादः इतने कालतक साथ रहनेकी योग्यता पड़ चुकी है। किंतु आयुकर्मकी स्थितिका प्रमाण बंधके समयसे नहीं लिया जाता, वह जीवके मरणके समयसे गिना जाता है।
भाष्यम्-उक्तः स्थितिबन्धः । अनुभागवन्धं वक्ष्यामः॥
अर्थ-बंधके दूसरे भेदरूप स्थिति बंधका प्रकरण और वर्णन पूर्ण हुआ, अब क्रमानुसार यहाँसे अनुभागबंध-तीसरे भेदका वर्णन करेंगे । अतएव अनुभागका अर्थ अथवा लक्षण बतानेवाला सूत्र कहते हैं:
सूत्र-विपाकोऽनुभावः ॥ २२॥ भाष्यम्-सर्वासां प्रकृतीनां फलं विषाकोदशोऽनुभावो भवति। विविधः पाको विपाकः। स तथा चान्यथा चेत्यर्थः । जीवः कर्मविपाकमनुभवन् कर्मप्रत्ययमेवानाभोगवीर्यपूर्वकं कर्मसंक्रमं करोति । उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो विद्यते, बन्धविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वात् । उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रभोहनीययोः सम्याग्मिथ्यात्ववेदनीयस्यायुष्कस्य च जात्यन्तरानुबंधविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वादेवसंक्रमो न विद्यते । अपवर्तनं तु सर्वासां प्रकृतीनां विद्यते । तदायुष्केण व्याख्यातम् ॥
अर्थ-सम्पूर्ण कर्मप्रकृतियोंका जो फल होता है, उसको विपाक अथवा विपाकोदय कहते हैं। इसीका नाम अनुभाव अथवा अनुभागबन्ध है । वि शब्दका अर्थ है, विविध-अनेकप्रकारका और पाक शब्दका अर्थ है, परिणाम या फल । बँधे हुए कर्मोंका फल अनेक प्रकारका हुआ करता है, अतएव उसको विपाक कहते हैं। क्योंकि बंधके समय कर्मोंमें जैसी अनुभवशक्तिका बंध होता है,उसका फल उस प्रकारका भी होता है और उसके प्रतिकूल अन्य प्रकारका भी हुआ करता है । जिस समय जीव कर्मोंके इस विपाकका अनुभव करता है, उसी समय वह उसको करता हुआ
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