SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १५-१६-१७-१८-१९-२० । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ — मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटीकोटी सागरकी है । भावार्थ - प्रत्येक कर्मका बन्ध प्रति समय होता है, ऐसा पहले कह चुके हैं । उनमें मोहनीयका भी बंध होता है । अब यहाँपर स्थितिका प्रकरण है, अतएव उस बंधकी स्थिति बताते हैं, कि एक क्षणमें बँधनेवाला मोहनीयकर्म ७० कोटीकोटी सागर तक आत्माके साथ सम्बद्ध रह सकता है | यह स्थिति मोहनीयके दो भेदोंमें से दर्शनमोहनीयकी है । नामकर्म और गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बताते हैं । — सूत्र - नामगोत्रयोविंशतिः ॥ १७ ॥ भाष्यम् - नामगोत्रप्रकृत्योर्विंशतिः सागरोपमकोटी कोट्यः परा स्थितिः ॥ अर्थ — नामकर्मप्रकृति अथवा गोत्रकर्मप्रकृतिका जो बंध हुआ करता है, उसमें स्थितिबंध ज्यादःसे ज्यादः बीस कोटीकोटी सागर तकका हो सकता है । आयुकर्मकी स्थिति बताते हैं ३७५ सूत्र - त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ १८ ॥ भाष्यम् – आयुष्कप्रकृतेस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परा स्थितिः ॥ अर्थ — आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति केवल ३३ सागरकी है । इस प्रकार आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण बताया, अब जघन्य स्थितिका प्रमाण बतानेके लिये लाघवार्थ पहले वेदनीयकर्म की स्थिति दिखाने वाला सूत्र कहते हैं: सूत्र - अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १९ ॥ भाष्यम् - - वेदनीयप्रकृतेरपरा द्वादश मुहूर्ता स्थितिरिति ॥ 1 अर्थ — वेदनीयकर्मकी जघन्य स्थितिका प्रमाण बारह मुहूर्त है । अर्थात् एक क्षण में बँधनेवाले वेदनीयकर्मका स्थितिबंध कमसे कम होगा, तो बारह मुहूर्तका अवश्य होगा, इससे कम वेदनीयका स्थितिबंध नहीं हो सकता । नामकर्म और गोत्रकर्मकी जघन्य स्थिति बताते हैं : Jain Education International सूत्र - नामगोत्रयोरष्टौ ॥ २० ॥ भाष्यम् - नामगोत्रप्रकृतेरष्टो मुहूर्ता अपरा स्थितिर्भवति ॥ अर्थ——नामकर्म और गोत्रकर्म की जघन्य स्थितिका प्रमाण आठ मुहूर्त है, अर्थात् इनका स्थितिबंध इतनेसे कम नहीं हो सकता । बाकीके कर्मोकी जघन्य स्थिति कितनी है ? उत्तर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy