SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [अष्टमोऽध्यायः जिसके उदयसे दानकी इच्छा रहते हुए और देय-सामग्रीके रहते हुए भी दान ने कर सके, उसको दानान्तराय कहते हैं । जिसके उदयसे निमित्त मिलनेपर भी लाभ न हो सके, उसको लाभान्तराय कहते हैं । भोग्य-सामग्रीके उपस्थित रहनेपर भी जिसके उदयसे उसको भोग न सके, उसको भोगान्तराय कहते हैं । उपस्थित उपभोग्य सामग्रीका भी जिसके उदयसे जीव उपभोग न कर सके उसको उपभोगान्तराय कहते हैं । इसी प्रकार जिसके उदयसे वीर्यउत्साह शक्तिका घात हो, अथवा वह प्रकट ही न हो, उसको वीर्यान्तराय कहते हैं। भाष्यम्-उक्तः प्रकृतिबन्धः । स्थितिवन्धं वक्ष्यामः। ___ अर्थ-इस अध्यायकी आदिमें बन्धके चार भेद बताये थे। उनमेंसे पहले भेद-प्रकृतिबंधका वर्णन हो चुका । उसके अनन्तर स्थितिबन्धका वर्णन समयप्राप्त है। अतएव क्रमानुसार अब उसीका वर्णन यहाँसे करेंगे। स्थिति दो प्रकार की है,-उत्कृष्ट और जघन्य । दोनोंके मध्यके भेद अनेक हैं, जोकि दोनोंके मालूम हो जानेपर स्वयं समझमें आ जाते हैं । अतएव दो भेदोंमेंसे पहले उत्कृष्ट स्थितिको बताते हैं । तथा उपर्युक्त अष्टविध प्रकृतियोंमेंसे किस किसकी उत्कृष्ट स्थिति कितनी कितनी होती है-बंधती है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र--आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१५॥ ___ भाष्यम्-आदितस्तिसृणां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेद्यानामन्तरायप्रकृतेश्च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥ अर्थ-आदिसे लेकर तीन कर्मप्रकृतियोंकी-जिस क्रमसे ऊपर जिन आठ प्रकृतियोंको गिनाया है, उस क्रमके अनुसार उनमें से प्रथम द्वितीय और तृतीय प्रकृति अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण और वेदनीयकर्मकी तथा आठवें अन्तरायकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटीकोटी सागरकी है। भावार्थ-प्रतिक्षण जो कर्मोंका बन्ध होता है, उसमें स्थितिका भी बँध होता है । सो इन चार कर्मों से प्रत्येककी स्थिति ज्यादःसे ज्यादः ३ ० कोटीकोटी सागर तककी एक क्षणमें बँध सकती है । अर्थात् इन चार कोमसे एक क्षणका बँधा हुआ कोई भी कर्म जीवके साथ ३० कोटीकोटी सागर तक रह सकता है । मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बताते हैं: सूत्र--सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १६ ॥ भाष्यम्--मोहनीयकर्मप्रकृतेः सप्ततिःसागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः॥ १-- एक कोटीको एक कोटीसे गुणा करनेपर जो गुणनफल हो, उसको कोटीकोटी कहते हैं। सागर उपमामानके भेदोंमेंसे एक भेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy