SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १३-१४ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३७३ इस प्रकार नामकर्मके ४२ मूलभेद और उनके उत्तरभेदोका स्वरूप बताया । तत्तत् भावोंको जो बनावे उसको नामकर्म कहते हैं। नामकर्मके उत्तरभेद और उत्तरोत्तर भेद अनेक हैं, जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है। क्रमानुसार सातवें प्रकृतिबंध-गोत्रकर्मके दो भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र--उच्चैर्नीचैश्च ॥१३॥ भाष्यम्-उच्चैगोत्रम् नीचैर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं देशजातिकुलस्थानमानसत्कारैश्वर्यायुत्कर्षनिर्वर्तकम् । विपरीतं नीचैर्गोत्रं चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबन्धदास्यादिनिर्वर्तकम् ॥ अर्थ-गोत्रकर्मके दो भेद हैं । उच्चैोत्र और नीचैर्गोत्र । इनमेंसे उच्चै!त्र उसको कहते हैं, जोकि देश जाति कुल स्थान मान सत्कार और ऐश्वर्य आदिकी अपेक्षा उत्कर्षका निवर्तक हो । नीचैर्गोत्र इसके विपरीत चण्डाल-नट-व्याध-पारिधी मत्स्यबन्ध-धीवर और दास्यदास अथवा दासीकी संतान इत्यादि नीच भावका निर्वर्तक है। भावार्थ-जिसके उदयसे जीव लोकपूजित कुलमें उत्पन्न हो, उसको उच्च गोत्र और जिसके उदयसे इसके विपरीत लोकनिन्द्य कुलमें जन्म ग्रहण करे, उसको नीचगोत्र कहते हैं। पूज्यता देश कुल जाति आदि अनेक कारणोंसे हुआ करती है । इसी प्रकार निन्द्यताके भी अनेक कारण हैं । सामान्यतया गोत्रके दो ही भेद हैं । परन्तु पूज्यता और निन्द्यताके तारतम्यकी अपेक्षा इसके अवान्तर भेद अनेक हैं। अन्तमें आठवें प्रकृतिबंध-अन्तरायकर्मके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र-दानादीनाम् ॥ १४ ॥ भाष्यम्-अन्तरायः पञ्चविधः । तद्यथा-दानस्यान्तरायः, लाभस्यान्तरायः, भोगस्यान्तरायः, उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यान्तराय इति ॥ अर्थ-अन्तरायकर्मके पाँच भेद हैं । जो कि इस प्रकार हैं-दानका अन्तरायदानान्तराय, लाभका अन्तराय-लाभान्तराय, भोगका अन्तराय-भोगान्तराय, उपभोगका अन्तराय-उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । भावार्थ- अन्तराय और विघ्न शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । अन्तराय शब्दका अर्थ ऐसा होता है, कि जो बीचमें आकर उपस्थित हो जाय । फलतः जिस कर्मके उदयसे दान आदि कार्योंमें विघ्न पड़ जाय-दानादि कार्य सिद्ध न हो सकें, उसको अन्तरायकर्म कहते हैं। विषयकी अपेक्षासे इसके पाँच भेद हैं। 2- पितृपक्षको कुल और मातृपक्षको जाति कहते हैं। दोनों ही शब्द वंशको लेकर प्रवृत्त हुआ करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy