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________________ समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्र - नार कतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ ११ ॥ भाष्यम् - आयुष्कं चतुर्भेदं नारकं तैर्यग्योनं मानुषं देवमिति ॥ अर्थ-- आयुष्क नामक प्रकृतिबन्धके चार भेद हैं-नारक, तैर्यग्योन, मानुष, और दैव । नहीं छूटता । अपकर्ष कालमें भावार्थ - आयुकर्मका स्वरूप पहले बता चुके हैं, कि जिसके उदयसे जीवको भवान्तर में अवश्य ही जन्म धारण करना पड़ता है । भव-गति चार ही हैं, अतएव आयुके भी चार ही भेद हैं । एक साथ दो आयुकर्मका उदय नहीं हुआ करता । एक आयु जब पर्ण हो जाती है, तब दूसरी आयुका जिसका कि अपकर्षकालमें बंध होगया हो, उदय हुआ करता है । अतएव मरणके अनन्तर विग्रहगतिमें भी परभव सम्बन्धी आयुका ही उदय रहा करता है । आयुकर्म जो बँध जाता है, वह अपना फल दिये विना नियमसे जीवको अपने योग्य भवमें वह ले जाता है जैसे कि नरकाका बंध हुआ, तो उस जीवको मरणके अनन्तर नियमसे नरक में ही जाना पड़ेगा । देवों के देवायु और नरकायुका तथा नारकोंके नरकायु और देवायुका बंध नहीं हुआ करता, शेष मनुष्य और तिर्यचोंके चारों ही आयुका बंध होता है । परन्तु एक जीवके एक ही परभवसम्बन्धी आयुका बंध होता है। उदय भी एक समयमें एक जीवके एक ही आयुका होता है | इसकी स्थितिके उत्कर्षण अपकर्षण उदीरणा आदि सम्बन्धी नियम ग्रन्थान्तरों में देखना चाहिये | बंधके लिये आठ अपकर्षकाल ही योग्य हैं । शेष समयोंमें आयुकर्मका बंध 1 नहीं होता । सूत्र ११-१२ । ] नामकर्मके व्यालीस भेदोंको गिनानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्ग निर्माणबंधन संघातसंस्थानसंहनन स्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्य गुरुर धूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्रासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर ससुभगसुस्वर शुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥ १२ ॥ ३६५ भाष्यम् - गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, अङ्गोपाङ्गनाम, निर्माणनाम, बन्धननाम' संघातनाम, संस्थाननाम, संहनननाम, स्पर्शनाम, रसना, गंधनाम, वर्णनाम, आनुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातकनाम, परघातकनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, उच्च्छासनाम, विहायोगति नाम, प्रत्येकशरीरादीनां सेतराणां नामानि ! तद्यथा - प्रत्येकशरीरनाम, साधारणशरीरनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशोनाम, अयशोनाम, तीर्थनाम, तीर्थकरनाम, इत्येतद्विचत्वारिंशद्विधं मूलभेदतो नामकर्म भवति । उत्तरनामानेकविधम् । तद्यथा-गतिनाम चतुर्विधं नरकगतिनाम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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