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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽध्यायः भावार्थ-इष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी आशा तथा प्राप्त वस्तुके वियोग न होनेकी अभिलाषाको लोभ कहते हैं । यह कषाय पर-पदार्थमें ममत्व बुद्धिके रहनेको सूचित करती है। इसके भी तरतम भावोंको बतानेके लिये चार दृष्टान्तोंके द्वारा जो चार स्थान बताये हैं, उनका आशय यह है कि जिस प्रकार लाखका रंग सबसे अधिक पक्का होता है, और वह कपड़ेके फटनेतक भी दूर नहीं होता, उसी प्रकार परम प्रकृष्ट स्थानको प्राप्त लोभ लाक्षारागसदृश समझना चाहिये । इससे कम स्थितिवाला और जो कदाचित् किसी उपायसे दूर हो सकता है, वह कर्दमरागसदृश है । जिस प्रकार कीचड़का रंग कपड़ेमें लग जानेपर कष्टसे छूटता है, उसी प्रकार इस लोभको समझना चाहिये। कीचड़के रंगकी अपेक्षा कुसुमका रंग जल्दी छट सकता है, उसी प्रकार जो लोभ कुछ ही कालके बाद विलीन हो जाय, उसको कुमम्भरागसदृश समझना चाहिये, और जो हल्दीके रंगके समान हो, उसको हरिद्रासदृश कहना चाहिये । इन चारों प्रकारके लोभका फल भी क्रमसे नरक तिर्यगति मनुष्यगति और देवगति है। जो चारों ही प्रकारके लोभसे रहित हैं, वे निर्वाण-पदको प्राप्त किया करते हैं। भाष्यम्-एषां क्रोधादीनां चतुपर्णा कषायाणां प्रत्यनीकभूताः प्रतिघातहेतवो भवन्ति। तद्यथा-क्षमा क्रोधस्य मार्दवं मानस्यार्जवं मायायाः संतोषो लोभस्येति ॥ अर्थ-इन उपर्युक्त क्रोधादिक चार कषायोंके प्रतिपक्षी-विरोधी चार धर्म हैं, जोकि इन चारों कषायोंके प्रतिघातके कारण हैं । यथा क्रोधका प्रतिपक्षी क्षमा है, मानका प्रतिपक्षी मार्दव, मायाका प्रतिपक्षी आर्जव, और लोभका प्रतिपक्षी संतोष है। भावार्थ-क्रोधादिक कषाय कर्मजन्य-भाव हैं-वे वास्तवमें आत्माके नहीं है। मोहनीय कर्मका स्वभाव आत्माको मोहित-मूर्छित करना है, ऐसा पहले बता चुके हैं । उसीके उत्तरभेदरूप इन कषायोंके उदयसे आत्मा, जब विपरिणत होता हैं, तब उस उस कषायरूप कहा जाता है । क्षमा आदिक आत्माके भाव हैं। जो कि इन कषायोंके नाशसे प्रकट होते हैं। क्योंकि क्रोधादिक और क्षमादिक दोनों ही भाव परस्परमें प्रतिपक्षी हैं । अतएव जहाँ एक रहेगा वहाँ उसका प्रतिपक्षी दूसरा नहीं रह सकता । क्रोधके रहते हुए क्षमा नहीं रह सकती, और क्षमाके रहते हुए क्रोध नहीं रह सकता। अतएव क्रोधादिके विनाशके कारण क्षमादिक चार धर्म हैं। क्रोधोत्पत्तिके कारण मिलनेपर भी क्रोध न होने देना, उसको सहन करना क्षमा है । मार्दवका अर्थ कोमलता और नम्रता है । आर्जव नाम सरलता अथवा कपट रहित प्रवृत्ति करनेका है, इष्ट वस्तुके अलाभमें भी तृप्ति रहनेको संतोष समझना चाहिये । मोहनीयके अनन्तर क्रमानुसार आयुष्क-कर्मके उत्तरभेदोंको गिनाते हैं:-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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