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________________ • सूत्र १० । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम् -- माया प्रणिधिरुपधिर्निकृतिरावरणं वञ्चना दस्भः कूटमतिसंधानमनार्जवमित्यनर्थान्तरम् । तस्या मायायास्तीवादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा-- वंशकुणसदृशी, मेषविषाणसदृशी, गोमूत्रिकासहशी, निर्लेखनसदृशीति । अत्राप्युपसंहारनिगमने कोनिदर्शनैर्व्याख्याते ॥ अर्थ - - माया, प्रणिधि, उपधि, निकृति, आवरण, वञ्चना, दम्भ, कूट, अतिसंधान, और अनार्जव, ये सब पर्यायवाचक शब्द हैं। क्रोध और मान कषायकी तरह इस माया कषायके भी तीव्र आदि भावकी अपेक्षा - तीव्र मध्यम विमध्यम और मन्दभाव को प्रकट करनेवाले चार दृष्टान्तरूप वाक्य हैं । - यथा - वंशकुणसदृशी, मेषविषाणसदृशी, गोमूत्रिकासदृशी, और निर्लेखनसदृशी' । इस विषय के भी उपसंहार और निगमनकी व्याख्या क्रोधके दृष्टान्तोंसे ही समझ लेनी चाहिये । भावार्थ— मन वचन कायका प्रयोग जहाँपर विषमरूपसे किया जाय, वहाँ माया कषाय समझना चाहिये । दूसरे को धोखा देने या ठगने के अभिप्राय से अपने मनके अभिप्रायको छिपाकर दूसरा आशय प्रकट करनेवाले वचन बोलना या शरीरसे वैसी कोई चेष्टा करना तथा इसी प्रकार वचन और कायमें भी वैषम्य रखने को माया कहते हैं । यह कषाय भी तरतम भावकी अपेक्षा अनेक प्रकारकी है, फिर भी सामान्यतया दृष्टान्तों द्वारा उसके चार भेद कहे जा सकते हैं, जोकि क्रमसे उसके तीव्रभाव, मध्यमभाव, विमध्यमभाव, और मन्दभावको प्रकट करनेवाले हैं। किसी भी तरह जिसका अंत न पाया जा सके, ऐसी बाँसकी जड़ के समान अत्यन्त जटिल वञ्चनाको वंशकुणसदृशी समझना चाहिये । जिसमें मेढ़े के सींग सरीखी कुटिलता पाई जाय, उसको मेषविषाणसदृशी, और जिसमें गोमूत्र के समान वक्रता रहे, उसको गोमूत्रिकासहशी, तथा जिसमें खुरपी आदिके समान टेढ़ रहे, उसको निर्लेखनसदृशी माया समझना चाहिये । इनकी स्थिति फल आदिका व्याख्यान सब कोधकी तरहसे ही कर लेना या समझलेना चाहिये । इस कषायसे जो सर्वथा रहित हैं, वे निर्वाण-पदके भागी होते हैं । भाष्यम् – लोभो रागो गादर्थमिच्छा मूर्छा स्नेहः कांक्षाभिष्व इत्यनर्थान्तरम् । तस्यास्य लोभस्य तीव्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा - लाक्षारागसदृशः, कर्दमरागसदृशः, कुसुम्भरागसदृशो हरिद्वारागसदृशः इति । अत्राप्युपसंहारनिगमने क्रोधनिदर्शनैव्याख्याते ॥ 1 S अर्थ -- लोभ, राग, गाद्वर्य, इच्छा, मूर्च्छा, स्नेह, काङ्क्षा, और अभिष्वङ्ग ये सब शब्द पर्यायवाचक हैं । इस लोभ कषायके भी तीव्रादि भावोंकी अपेक्षासे चार दृष्टान्त हैं । यथा-लाक्षारागसदृश, कर्दमरागसदृश, कुसुम्मरागसदृश, और हरिद्वारागसदृशं । इस विषय में भी उपसंहार और निगमनकी व्याख्या क्रोध के जो दृष्टान्त दिये हैं, उन्हीं के द्वारा समझ लेनी चाहिये । Jain Education International ३६३ १ – वेणुवमूलोरब्भयसिंगे गोमुत्तएय खोरपे । सरिसी माया णारयतिरियणरामरईमुखिबदि जियं ॥ २८५ ॥ गो. जी. २- किमिरायचक्कतणुमलरिराएणसरिसओ लोहो । णारयतिरिक्खमाणुसदेवे सुप्पायओ कमसो ॥ २५६ ॥ गो० जी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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