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________________ ३६०. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽध्यायः जिसदृशः बालुकाराजिसदृशः उदकराजिसदृश इति । तत्र पर्वतराजिसदृशो नाम ।- यथाप्रयोगवित्रसामिश्रकाणामन्यतमेन हेतुना पर्वतराजिरुत्पन्ना नैव कदाचिदपि संरोहति एवमिष्टवियोजनानिष्टयोजनाभिलषितालाभादीनामन्यतमेन हेतुना यस्योत्पन्नः क्रोधः आमरणान्न व्ययं गच्छति जात्यन्तरानुबन्धी निरनुनयस्तीव्रानुशयोऽप्रत्यवमर्शश्च भवति स पर्वतराजि. सदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृता नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । भूमिराजिसदृशो नाम ।-यथा भूमेर्भास्कररश्मिजालात्तस्नेहाया वायवभिहताया राजिरुत्पना वर्षापेक्षसंरोहा परमप्रकृष्टाटमासस्थितिर्भवति एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधोऽनेकविधस्थानीयो दुरनुनयो भवति स भूमिराजिसदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृतास्तिर्यग्योनावुपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । बालुकाराजिसदृशोनामा-यथा बालुकायां काष्ठशलाकाशर्करादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना वाय्वीरणाद्यपेक्षसंरोहार्वाग्मासस्य रोहति एवं यथोक्तनिमित्तोत्पन्नो यस्य क्रोधोऽहोरात्रं पक्षं मासं चातुर्मास्यं सम्बसरं वावातष्ठते स बालुकाराजिसदृशो नाम क्रोधः । तादृशं क्रोधमनुमृता मनुष्येषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति ॥ उदकराजिसदृशो नाम-यथोदके दण्डशलाकाङ्गुल्यादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना द्रवत्वादपामुत्पत्यनन्तरमेव संरोहति । एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधो विदुषोऽप्रमत्तस्य प्रत्यवमर्शेनोत्पत्यनन्तमेव व्यपगच्छति स उदकराजिसदृशः । तादृशं कोधमनुमृता देवेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । येषां त्वेष चतुर्विधोऽपि न भवति तेनिर्वाणं प्राप्नुवन्ति। ___अर्थ--उक्त चार प्रकारके कषायमें सबसे पहला क्रोध है। अतएव सबसे पहले उसीका यहाँपर खुलासा किया जाता है। क्रोध कोप रोष द्वेष भण्डन और भाम ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। इन शब्दोंके द्वारा जिसका निरूपण किया जाता है, उस कषायकेक्रोधके तरतम भावकी अपेक्षा चार स्थान हैं । यथा तीव्र, मध्यम, विमध्यम, और मन्द । इनके स्वरूपका बोध करानेके लिये क्रमसे चार दृष्टान्तरूप वाक्य हैं ।-यथा--पर्वतरानिसदृश, भूमिराजिसदृश, बालुकारानिसदृश, और उदकराजिसदृश । इनमेंसे पर्वतरानिसदृशका अभिप्राय यह है, कि-जिस प्रकार प्रयोगपूर्वक अथवा स्वाभाविक रीतिसे या दोनों तरहसे, इनमें से किसी भी प्रकारसे पत्थरके ऊपर यदि रेखा हो जाय, तो फिर वह कभी भी नहीं सरीखी नहीं होती-वह ज्योंकी त्यों ही बनी रहती है। इसी प्रकार इष्टका वियोग या अनिष्टका संयोग अथवा अभिलषित वस्तुका लाभ न होना, आदि निमित्तों से किसी भी निमित्तको पाकर जिस जीवके ऐसा क्रोध उत्पन्न हुआ हो, जो कि मरणके समयतक भी न छूटे-नष्ट न हो, बल्कि दूसरे भवतक भी साथ ही जाय, किसी भी उपायसे दूर न हो सके, या न शान्त किया जा सके, तथा न क्षमाभाव धारण करनेके ही योग्य हो, ऐसे विलक्षण जातिके क्रोधको पर्वतराजिसदृश-पत्थरकी रेखाके समान, समझना चाहिये । ऐसे क्रोधके साथ मरणको प्राप्त होनेवाले जीव मरकर नरकोंमें जन्म-धारण किया करते हैं। भूमिराजिसदृशका तात्पर्य यह है, कि जिस प्रकार किसी गीली भूमिपर सूर्यकी किरणें पड़ी और उससे उसकी आर्द्रता-गीलापन नष्ट हो गया, साथ ही वह वायुसे भी ताड़ित हुई तो उस भूमिमें कदाचित ऐसी रेखा पड़ जाती है, जोकि वर्षाकाल तक नहीं जाती । सामान्यतया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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