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________________ सूत्र १० । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३५९ प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्वलन क्रोध, संजयलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ । नोषावेदनीय के नौ भेद हैं । -- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसक वेद । इन नौ प्रकारोंमें से वेदकर्म जो पुरुषवेद स्त्रीवेद और नपुंसक वेद इस तरह तीन प्रकारका बताया है, उनके क्रमसे तृणाग्नि काष्ठाग्नि और कारीषाग्नि ये तीन उदाहरण हैं। जिसके उदयसे स्त्रीके साथ रमण करने की इच्छा हो, उसको पुरुषवेद कहते हैं, और जिसके उदयसे पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसको स्त्रीवेद कहते हैं । तथा जिसके उदयसे दोनों सरीखे भाव हों, अथवा दोनों भावोंसे रहित हो उसको नपुंसकवेद कहते हैं । इनमें से पुरुषवेदके भाव तृणकी अग्नि के समान हुआ करते हैं, और स्त्रीवेदके भाव काष्ठकी अग्नि समान होते हैं । तथा नपुंसक वेदके भाव कारीषे अग्निके समान हुआ करते हैं । इस तरह सब मिलाकर मोहनीय कर्म के १६ कषायवेदनीय, और ९ नोकषायवेदनीय । अट्ठाईस भेद होते हैं । ३ दर्शनमोहनीय, भाष्यम्--अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । अप्रत्याख्यानकषायोदयाद्विरतिर्न भवति । प्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद्विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति । संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति । अर्थ - उपर्युक्त कषायें में से अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका घात करनेवाली है । जिस जीवके अनन्तानुबन्धी कोष मान माया या लोभसे किसी का भी उदय होता है, उसके सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ करता । यदि पहले सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया हो, और पीछेसे अनन्तानुबन्धी कषायका उदय हो जाय, तो वह उत्पन्न हुआ भी सम्यग्दर्शन छूट जाता है- नष्ट हो जाता है । अप्रत्याख्यान कषायके उदयसे किसी भी तरह की - एकदेश या सर्वदेश विरति नहीं हुआ करती । इस कषायके उदयसे संयुक्त जीव महाव्रत या श्रावक के व्रत जो पहले बताये हैं, उनको धारण नहीं कर सकता । प्रत्यारव्यानावरणकषायके उदयसे विरताविरति - श्रावक के व्रत - - एकदेश संयमरूप तो होते हैं, परन्तु उत्तम चारित्र - महाव्रतका लाभ नहीं हुआ करता । तथा संज्वलन कषायके उदयसे यथाख्यतचारित्रका लाभ नहीं हुआ करती । भाष्यम् - क्रोधः कोपो रोषो द्वेषो भण्डनं भाम इत्यनर्थान्तरम् । तस्यास्य क्रोधस्य तीव्रमध्यविमध्यमन्दभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा - पर्वतराजिसदृशः भूमिरा १- वित्थी व पुमं णउंसओ उयलिंगविदिरितो । इहावागिस माणगवेदणगरुओ कलुसचित्तो ॥ २७४ ॥ तिणकारिसिहपागग्गिसारेसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सगसंभवणंतवरसाक्खा ॥ २७५॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड २ -- सम्मत्तदेससयलचरितजखाद चरणपरिणामे । घादंति वा कषाया चउसोलअ संरवलोग मिदा ॥ २८२ ॥ गोम्मटसार जीवकांड ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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