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________________ ३५५ सूत्र ३-४-५।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । पुद्गलोंके भेद अनेक हैं। उनमेंसे जिनमें यह योग्यता है, कि अष्टविध कर्मरूप परिणत हो सकते हैं, उन्हींको सकषाय-जीव ग्रहण किया करता है, और इस तरहके ग्रहणको ही प्रकृतमें बन्ध कहते हैं । इसी बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र-स बन्धः ॥३॥ भाष्यम्-स एष कर्मशरीर पुद्गलग्रहणकृतो बन्धो भवति ॥ अर्थ-ऊपर कार्मणशरीरके योग्य जो पुद्गलोंका ग्रहण करना बताया है, उसीको बन्ध कहते हैं । भावार्थ-ऊपर लिखे अनुसार वक्ष्यमाण रीतिसे संसारी-जीवका कार्मणवर्गणाओंके ग्रहण करनेको प्रकृतमें बन्ध समझना चाहिये । सामान्यतया यह बन्ध एक ही प्रकारका है, किन्तु विशेष अपेक्षासे कितने भेद हैं, सो बतानेके लिये भाष्यकार कहते हैं कि---- भाष्यम्-स पुनश्चतुर्विधः॥ अर्थ-उक्त कार्मणवर्गणाओंका ग्रहणरूप बन्ध चार प्रकारका है। यथा:--- सूत्र-प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ॥ ४ ॥ भाष्यम्-प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, अनुभागबन्धः, प्रदेशबन्ध इति । तत्रः-- अर्थ-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध, इस तरह बन्धके कुल चार भेद हैं। __भावार्थ--प्रकृति नाम स्वभावका है। जैसे कि नीमकी प्रकृति कटु-कड़वी और ईखकी प्रकृति मधुर होती है, उसी प्रकार कर्मोंकी भी प्रकृति होती है । ग्रहण की हुई कार्मणवर्गणाओंमें अपने अपने योग्य स्वभावके पड़नेको प्रकृतिबंध कहते हैं । जिस कर्मकी जैसी प्रकृति होती है, वह उसीके अनुसार आत्माके गुणोंको घातने आदिका कार्य किया करता है। एक समयमें बँधनेवाले कर्मपुद्गल आत्माके साथ कबतक सम्बन्ध रक्खेंगे, ऐसे कालके प्रमाणको स्थिति और उसके उन बँधनेवाले पुद्गलोंमें पड़ जानेको स्थितिबंध कहते हैं । बँधनेवाले कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिके तारतम्य पड़नेको अनुभागबंध कहते हैं, और उन कर्मोकी वर्गणाओं अथवा परमाणुओंकी हीनाधिकताको प्रदेशबंध कहते हैं। जिस समय कर्मका बन्ध हुआ करता है, उस समयपर चारों ही प्रकारका बंध होता है। इनका विशेष स्वरूप और उत्तर भेदोंको बतानेके लिये आचार्य वर्णन करनेके अभिप्रायसे प्रथम प्रकृतिबंधके भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं । सूत्र-आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनी यायुष्कनामगोत्रान्तरायाः॥५॥ भाष्यम्---आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्प्रकृतिबन्धमाह, सोष्टविधः । तद्यथा--ज्ञानावरण दर्शनावरणं वेदनीयं मोहनीयम् आयुष्कं नाम गोत्रम् अन्तरायमिति। किंचान्यत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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