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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ अष्टमोऽध्यायः
किया जायगा, वहीं बतायेंगे | योगका स्वरूप पहले बता चुके हैं । वह तीन प्रकारका हैमानसिक, वाचनिक, और कायिक |
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ये जो पाँच मिथ्यादर्शन आदि बन्धके कारण बताये हैं, उनमें पूर्व पूर्व कारण के होनेपर आगे आगे के कारणका सद्भाव नियत है - अवश्य रहता है । परंतु उत्तरोत्तर कारणके रहने पर पूर्व पूर्वके कारणों का रहना नियत नहीं है । यथा - जहाँपर मिथ्यादर्शन है, वहाँपर अविरति आदि चार कारण भी अवश्य रहेंगे, तथा जहाँपर अविरति है, वहाँपर आगे के प्रमाद कषाय और योग ये तीन हेतु भी अवश्य रहेंगे । किन्तु अविरतिके साथ यह नियम नहीं है, कि मिथ्यादर्शन भी रहे ही । इसी प्रकार प्रमाद के साथ कषाय और योग तो अवश्य रहते हैं, परन्तु मिथ्यादर्शन और अविरतिके रहनेका नियम नहीं है इत्यादि । अर्थात् अविरति आदि उत्तरोत्तर कारणों के साथ साथ मिथ्यादर्शनादि पूर्व पूर्व के कारण रहते भी हैं, और नहीं भी रहते । इसी तरह सर्वत्र समझ लेना चाहिये ।
इस प्रकार बंधके कारण को बताकर बंध किसका होता है, किस तरहसे होता है, और उसका स्वामी कौन है, इन बातोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं : '
सूत्र - सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते ॥२॥
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भाष्यम् - सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते । कर्मयोग्यानिति अष्टविधपुद्गलग्रहणकर्मशरीरग्रहणयोग्यानित्यर्थः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषादिति वक्ष्यते ॥ अर्थ — कर्मके योग्य पुद्गलोंको कषाय सहित होने के कारण संसारी जीव ग्रहण किया करता है । कर्मके योग्य ऐसा कहनेका आशय यह है, कि आठ प्रकारके पुलों का ग्रहण कर्मशरीर- कार्माणकायके ग्रहण करने के योग्य हुआ करता है । जैसा कि आगे चलकर इसी अध्याय के सूत्र २५ की व्याख्या में बतावेंगे, कि योग विशेष के निमित्तसे और जिनका कि कारण सम्पूर्ण कर्मप्रकृतियाँ हैं, ऐसे अनन्तानन्त प्रदेश सब तरफ से आते हैं, और वे आत्मा के प्रत्येक प्रदेशपर अवस्थित रहा करते हैं ।
भावार्थ --- अध्याय ८ सूत्र २५ में बताई हुई रीति से जो पुद्गलों का ग्रहण होता है, वह कर्मके योग्य समझन' चाहिये । इस ग्रहणका स्वामी कषायसहित जीव हुआ करता है, और उक्त पुद्गलोंमें जो कर्मरूप होनेकी योग्यता रखते हैं, उन्हींका जीवकी सकषायता के कारण ग्रहण हुआ करता है । यही कारण है, कि सूत्रमें सकषाय शब्दको जीव शब्द के साथ न जोड़कर पृथक् रक्खा है, और उसका हेतुरूपसे निर्देश किया है । इसी तरह ' कर्मयोग्यान्' ऐसा पाठ न करके 'कर्मणो योग्यान् ' ऐसा जो पृथक् पृथक् निर्देश किया है, उसका भी कारण यह है, कि कर्म शब्दका दोनों तरफ सम्बन्ध हो जाता है, जिससे यह अभिप्राय निकलता है, कि जीव कर्मके निमित्तसे सकषाय हुआ करता है, और पुनः उस सकषायता के कारण कर्मके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण किया करता है ।
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